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रुप में मनाया जाने लगा (आज भी वर्षीतप के पारणे के रुप में लाखों जैन इस महापर्व को मनाते हैं।) * केवलज्ञान कल्याणक एवं तीर्थ स्थापना :- भगवान ऋषभदेव एक हजार वर्ष तप छद्मस्थ अवस्था में साधना
करते रहे। फागुण वदि एकादशी के दिन पुरिमताल के उद्यान में वटवृक्ष के नीचे चौविहार अट्ठम तप सहित उत्तराषाढ नक्षत्र में शुक्लध्यान ध्याते हुए भगवान को सवोत्कृष्ट केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हुआ। जिस समय भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ उस समय संसार में क्षण - भर के लिए दिव्य आलोक सा फैल गया। अगणित मानव समूह भगवान को वंदन करने आने लगे। चक्रवर्ती भरत को सूचना मिलते ही वे भी माता मरुदेवा के साथ भगवान ऋषभदेव का केवलज्ञान महोत्सव
मनाने आये। माता मरुदेवा हाथी पर बैठकर जब शकटउद्यान में पहुँची तो उन्होंने दूर से ही देवताओं द्वारा रचित दिव्य समवोसरण में भगवान को विराजमान देखा, हजारों सूर्य से भी अधिक प्रकाशमान अगणित देव - देवेन्द्रों से पूजित भगवान का दिव्य मनोहारी स्वरुप देखते - देखते माता मरुदेवा भाव विभोर हो गयी। उच्च निर्मल भाव धारा में बहते हुए माता मरुदेवा केवलज्ञान प्राप्त कर हाथी के होदे पर से ही मोक्ष पधार गई।
भगवान की प्रथम देशना सुनकर भरत के 500 पुत्र और 700 पौत्र आदि व्यक्तियों ने दीक्षा अंगीकार की। हजारों व्यक्तियों ने श्रावक धर्म स्वीकार किया। इनमें भरत महाराजा
का ज्येष्ठ पुत्र पुण्डरिक कुमार प्रथम गणधर हुए। युग की आदि में चतुर्विध संघ की स्थापना करके धर्म प्रवर्तन करने के कारण भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ कहलाये। * निर्वाण कल्याणक :- भगवान ऋषभदेव 20 लाख पूर्व वर्ष कुमार अवस्था में, 63 लाख पूर्व राज्य अवस्था में, एक हजार वर्ष छद्मस्थ अवस्था में, एक हजार वर्ष कम एक लाख पूर्व वर्ष केवली अवस्था में रहे यानी संपूर्ण एक लाख पूर्व वर्ष चारित्र पालकर 84 लाख पूर्व वर्ष की आयुष्य पूर्ण कर अर्थात घाती - अघाती कर्मों को क्षय कर इसी अवसर्पिणी के सुखम : दुखम् नामक तीसरे आरे के 3 वर्ष साढे आठ महीने शेष रहने पर माघ वदी तेरस के दिन अष्टापद पर्वत पर 10 हजार मुनियों सहित, छः उपवास युक्त अभिजित नक्षत्र में पद्मासन में
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