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________________ ब्रह्म (आत्मा) की चर्चा में लीन रहने के कारण इन्हें ब्राह्मण कहा जाता था। इनकी संख्या सीमित थी और भरत द्वारा निर्धारित थी। इस प्रकार चारों वर्ण की उत्पत्ति ऋषभदेव और सम्राट भरत के समय में हो गई थी, किंतु हीनता और उच्चता की भावना उस समय बिल्कुल नहीं थी। सभी अपने - अपने कार्य से संतुष्ट थे। वर्ण के नाम पर हीन - उच्च या स्पृश्य अस्पृश्य आदि के भाव नहीं थे। * विवाह प्रथा :- भगवान ऋषभदेव ने काम - भावना पर नियंत्रण रखने की दृष्टि से शादी की व्यवस्था प्रचलित की। शादी से पहले का जीवन संयमित बनाये रखना अनिवार्य घोषित किया। लोग पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी के साथ निर्विकार संबंध रखने के आदी हो गये । इसके अतिरिक्त बहन के साथ शादी भी वर्जित कर दी गयी। भाई - बहन का पवित्र संबंध जो हम आज देख रहे हैं, वह भगवान ऋषभदेव की ही देन है। * लोकांतिक देवों की धर्मतीर्थप्रवर्तन के लिए प्रार्थना :- प्रभु का दीक्षा समय समीप जानकर लोकान्तिक देवों ने आकर अपने शाश्वत आचार के अनुसार प्रभु से संयम मार्ग प्रवर्तने हेतु प्रार्थना की । देवताओं के जाने के बाद अपनी स्थिति का स्मरण कर प्रभु ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्यासन पर बैठाया। अन्य पुत्रों को अपने - अपने नाम के देशों में अधिपति किया और संसार से विरक्त हुए। * वार्षिक दान :- संसार से वैराग्य भाव धारण कर प्रभु ने सांवत्सरिक दान देना प्रारंभ किया। दीक्षा के दिन से एक वर्ष पूर्व प्रभु ने नित्य प्रातःकाल वार्षिकदान प्रारंभ कर दिया। दान देने का समय सूर्योदय से लेकर मध्यान्ह समय तक था। यह दान बिना भेदभाव देते थे। शास्त्रकारों के अनुसार प्रतिदिन एक करोड़ आठ लाख और एक वर्ष में तीन सौ अट्ठासी करोड़ और अस्सी लाख सुवर्ण मुद्राओं का दान करते हैं। * दीक्षा कल्याणक :- चैत्र वद अष्टमी के दिन भगवान ऋषभदेव विनीता नगरी के मध्य में होकर सिद्धार्थ वन के अंदर अशोक वक्ष के नीचे स्वयं आभषणादि सर्व निकालकर चार मष्टि लोच करते हैं. उस समय पांचवी मष्टि के केश उनके स्वर्णिम देह के पृष्ठ भाग पर यानि दोनों स्कन्धों पर बिखरे हुए देखकर इन्द्र महाराज ने प्रार्थना की कि "हे भगवन ! यह बाल सुंदर लगते हैं, इसके लिए इनको इसी तरह रहने दीजिए" इन्द्र का वचन मानकर प्रभु ने उन केशों का लोच नहीं किया, इससे अब तक भी कहीं कहीं आदिश्वर भगवान की प्रतिमा के कन्धे पर जटा होती है। दीक्षा के समय प्रभु ने चौविहार तप किया था। भगवान के साथ कच्छ महाकच्छ आदि चार हजार राजा शकटोद्यान में आकर प्रभु के साथ दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा समय इन्द्र ने प्रभु के कन्धे पर देवदष्य वस्त्र डाला। इस तरह भगवान गृहस्थावास को त्याग कर अनगार हुए, इस वक्त ऋषभदेव भगवान को चौथा मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ। भगवान ऋषभदेव उस युग के प्रथम मुनि या भिक्षु थे। लोग मुनि की आचार - मर्यादा से अनभिज्ञ थे। उन्हें कैसी भिक्षा दी जाए यह भी पता नहीं था। भगवान ऋषभदेव जब भिक्षा के लिए नगर में आते तो लोग उन्हें स्वामी, महाराज आदि आदर पूर्वक संबोधन देकर स्वर्ण, आभूषण, वस्त्र आदि EBENEOCEEE RRRRIERARMIRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRA 14 anuaryainturturallytulightent
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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