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दर्प की धूल धुल गयी और शाश्वत प्रकाश खिल उठा। चेतना के स्वरुप में । केवली बन गये बाहुबली । चक्रवर्ती विजेता बन गये आत्म विजेता ।
दूसरी ओर भरत महाराजा एक दिन स्नान करके, शरीर पर चंदन का लेप लगाकर सर्व अंगों पर दिव्य रत्न आभूषण धारण करके अंतःपुर के आदर्शगृह में गये। वहां दर्पण में अपना स्वरुप निहार रहे थे तब एक मंद्रिका गिर गई। उस अंगूलि पर नजर पडते वह कांतिविहीन लगी । उन्होंने सोचा कि यह अंगूलि शोभारहित क्यों है? यदि अन्य आभूषण न हो तो और अंग भी शोभारहित लगेंगे ? ऐसा सोचते सोचते एक एक आभूषण उतारने लगे। सब आभूषण उतर जाने के बाद शरीर पत्ते बगैर के पेड समान लगा। शरीर मल और मूत्रादिक से मलिन है। उसके ऊपर कपूर एवं कस्तूरी वगैरह विलेपन भी उसे दूषित करते हैं। ऐसा सम्यक् प्रकार से सोचते सोचते क्षपक श्रेणी में
आरुढ होकर शुक्लध्यान प्राप्त होते ही सर्व घातिकर्म का क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त किया।
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