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________________ बाहुबलीजी एक वर्ष तक काउसग्ग में ही खडे रहे । शरीर पर सैंकडों शाखाओंवाली लताएं लिपट गई थी। पक्षीयोंने घोंसले बना लिये थे । भयंकर प्राणी भी रोष छोडकर निर्दोष बन गये। पर महाबली बाहुबली के मन में छिपा अहंकार का काटा नहीं निकल पाया। साधना उच्चता के शिखर पर आरुढ होने के . लिए तैयार थी पर चित्त का सामान्य अहं भाव उसे रोक रहा था। परमात्मा ऋषभदेव के केवलज्ञान के दर्पण में सब कुछ प्रत्यक्ष झलक रहा था। उन्होंने ब्राह्मी - सुंदरी से कहा बाहुबली का अविचल ध्यान केवलज्ञान की भूमिका के निकट पहुंच चुका है परंतु अभिमान का पतला सा परदा उसमें बाधक बन रहा है। जाओ ! उसे जगाओ ! ब्राह्मी और सुंदरी बाहुबली के निकट पहुंची और पुकारने लगी " वीरा म्हारा गज थकी उतरो, गज चढ्या केवल न होय रे - भैया ! हाथी पर बैठे बैठे केवलज्ञान की बाती नहीं जल सकती। केवलज्ञान पाने के लिए गज पर चढना नहीं, गज से नीचे उतरना होता है। रुकना नहीं, झुकना होता है। - बाहुबली के कानों में शब्द पडे तो पहचान गये कि भैया कहकर बहनें मुझे ही पुकार रही है। वे गज से उतरने की बात कह रही है पर मैं कहां गज पर सवार हूं ? पर वीरा का संबोधन तो मेरे लिये ही है। बाहुबली के दिल में खलबली मच गयी। क्या कह रही है मेरी बहनें ? मैंने तो साम्राज्य संपदा का त्याग कर दिया है। कुछ भी तो नहीं है मेरे पास। न हाथी है न घोडे। तो गजारुढ होने की बात किसलिए ? नीचे उतरने की प्रार्थना क्यों ? जरुर इसमें कोई गहरा राज छिपा है। "हाथी" का ईशारा किस तरफ है ? चिंतन करते करते राजर्षि बाहुबली उतर गये भीतर में। अंतर को टटोलते ही, भीतर की आंखें खोलते ही सारा नजारा सामने आ गया। अहंकार की काली परछाई आ गयी नजर के सामने। धीरे धीरे भावों की निर्मलता सिद्धत्व के शिखर की ओर बढने लगी। अभिमान का बर्फ प्रतिबोध की आग पाकर पिघलने लगा। मान की गांठ खुलते-खुलते पूरी खुल गयी। अहंकार मिटा | विनय प्रकट हुआ और भावावेग में ज्योंहि बाहुबली ने अपने भाईयों को नमस्कार करने के लक्ष्य से कदम उठाया कि वे जैसे अंधेरे से उजाले में आ गये। अल्पज्ञ से सर्वज्ञ बन गये। बंधन टूट गये और मुनि निर्बन्ध स्थिति को उपलब्ध हो गये। आत्मा केवलज्ञान के आलोक में जगमगा उठी। साधक ने उसे साध लिया जिसे साधना था, जिसके लिए साधना की । आत्म- दर्पण पर छाई 114 ******** www.jainelibrary.org
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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