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* पंचपरमेष्ठि नमस्कार *
नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्यः भावार्थ :- अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं को नमस्कार हो।
* उवसग्गहरं स्तोत्र * उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्म घण मुक्कं । विसहर विस निन्नासं, मंगल कल्लाण आवासं ||1|| विसहर फुलिंग मंतं, कंठेधारेइ जो सया मणुओ। तस्स गह रोग मारी दुट्ठजरा जंति उवसामं ||2|| चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होइ। नर तिरिएसु वि जीवा, पावंति न दुक्ख दोगच्चं ।।3।। तुह सम्मत्ते लद्धे चिंतामणि कप्पपायव ब्भहिए। पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ||4|| इअसंथुओ महायस ! भत्तिभर निब्भरेण हिअएण। ता देव ! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ।।5।।
* शब्दार्थ *
उवसग्गहरं :- उपसर्गों को दूर करनेवाले।
जंति :- हो जाते हैं। पासं :- पार्श्व नामक यक्ष के स्वामी।
उवसामं :- शांत। पासं :- तेईसवे तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ भगवान को। चिट्ठउ दूरे :- दूर रहे। वंदामि :- मैं वंदन करता हूँ।
मंतो :- यह विषधर स्फुलिंग द्वारा मंत्र। कम्मघणमुक्कं :- कर्म समूह से मुक्त बने हुए
तुज्झ :- आपको किया हुआ। विसहर विस निन्नासं :- सांप के जहर का नाश करनेवाला। पणामो :- प्रणाम। मंगल कल्लाण आवासं :- मंगल और कल्याण के स्थान भूत। वि :- भी विसहर फुलिंग मंतं :- विषधर स्फुलिंग नामक मंत्र को। बहुफलो :- बहुत फल देने वाला। कंठे धारेइ :- कंठ में धारण करता है, स्मरण करता है। होइ :- होता है। जो:- जो
नर तिरिएसु वि जीवा :- मनुष्य और तीर्यंच जीव भी सया :- नित्य।
पावंति न :- नहीं पाते हैं। मणुओ :- मनुष्य।
दुक्ख दोगच्चं :- दुःख तथा दुर्दशा को तस्स :- उसके।
तुह :- आपका गह रोग मारी दुट्ठजरा :- ग्रहचार, रोग, मारी
सम्मभत्ते लद्धे :- सम्यग्दर्शन प्राप्ति होने पर। (हैजा, प्लेग आदि) और कुपित ज्वर
चिंतामणी कप्पपायव ब्भहिए :- चिंतामणी रत्न 1. ग्रह :- शनि आदि अनिष्ट ग्रहों का कुप्रभाव
और कल्पवृक्ष से भी अधिक। 2. रोग :- सोलह महारोग तथा अन्य रोग भी।
पावंति - प्राप्त करते हैं। 3. मारी :- जिन रोगों से बहुत जन संहार हो अथवा अविग्घेण :- सरलता से विघ्नरहित होकर। अभिचार या मरण प्रयोग से सहसा फूट निकलने वाले रोग। जीवा :- जीव। 4. दुष्ट ज्वर :- विषमज्वर, सन्निपात आदि।
अयरामरं ठाणं :- मोक्ष स्थान को, मुक्ति को।
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