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________________ जो भूतकाल में सिद्ध हो गये हैं, जो भविष्यकाल में सिद्ध होनेवाले हैं तथा जो वर्तमानकाल में सिद्ध विद्यमान है, उन सब को मैं शुद्ध मन, वचन और काया त्रिविध योग से वंदन करता हुं। (इस गाथा में द्रव्य जिन को वंदन किया गया है।) जब तीर्थंकर भगवान देवलोक से च्यवकर माता के गर्भ में आते हैं तब शक्र (इन्द्र) इस सूत्र के द्वारा । उनका स्तवन करते हैं। इसलिए शक्रस्तव कहलाता है। * जावंति चेइआई सूत्र * जावंति चेइआई, उडे अ अहे अतिरिअ लोए अ। स्ववाई ताई वंदे, इह संतो तत्थ संताई ||1|| * शब्दार्थ * जावंति :- जितने। अ :- एवं। चेइआई :- चैत्य, जिन बिम्ब। सव्वाइं ताई :- उन सबको। उड्डे :- ऊर्ध्व लोक में। वंदे :- मैं वंदन करता हूँ। अ:- तथा । इह :- यहां अहे :- अधो लोक में। संतो :- रहता अ:- और तत्थ :- हुआ तिरिअलोए :- तिर्यग लोक में। संताई :- रहे हुओं को। C भावार्थ :- ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिरछालोक में जितने भी चैत्य (तीर्थंकरों की मूर्तियां) है उन सबको मैं यहां रहता हुआ वंदन करता हूँ। * जावंत के वि साहू * जावंत के वि साहू, भरहेरवय - महाविहेदे अ। सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंड विरयाणं ||1|| जावीत केवि साहू,०० जावंत :- जो। के :- कोई। वि :- भी। साहू :- साधु। भरहेवरवय - महाविदेहे :- भरत, ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में। अ:- और। सव्वेसिं तेसिं :- उन सबको। पणओ :- नमन करता हूँ | तिविहेण :- करना, कराना और अनुमोदन करना इन तीन प्रकारों से । तिदंड - विरयाणं :- जो तीन दंड से विराम पाये हुए हैं, उनको। भावार्थ :- भरत - ऐरावत और महाविदेह क्षेत्र में स्थित जो कोई भी साधु मन, वचन और काया से पाप प्रवृत्ति करते नहीं, कराते नहीं, करते हुए अनुमोदन नहीं करते उनको मैं नमन करता हूँ। titidinjarneitorarytarge 95
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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