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________________ इअ संथुओ - इस प्रकार स्तुति की है। देव :- हे देव महायस :- हे महायशस्विन। दिज्ज बोहिं :- सम्यक्त्व प्रदान करो। भतिब्भर निब्भरण :- भक्ति से भरपूर भवे - भवे :- प्रत्येक भव में हिअएण :- हृदय से पास जिणचंद :- हे पार्श्व जिणचंद्र ता :- इसलिए भावार्थ :- संपूर्ण उपद्रवों को दूर करनेवाला पार्श्व नाम का यक्ष जिनका सेवक है, जो कर्मों की राशि से मुक्त है, जिनके स्मरण मात्र से सर्प के विष का नाश हो जाता है, और जो मंगल तथा कल्याण के आधार है ऐसे भगवान श्री पार्श्वनाथ को मैं वंदन करता हूँ। जो मनुष्य भगवान के नाम गर्भित विषधर स्फुलिंग मंत्र को हमेशा कंठ में धारण करता है अर्थात् पठन स्मरण करता है उसके प्रतिकूल ग्रह, कष्ट, साध्य रोग, भयंकर मारी अथवा मारण प्रयोग से सहा फूट निकलने वाले रोग और दुष्ट ज्वर ये सभी उपद्रव शांत हो जाते हैं। उवसग्गहरं स्तोत्र चौदह पूर्वधर आचार्य श्री भद्रबाहु स्वामी ने बनाया है। इसके बारे में ऐसी कथा प्रचलित है:- कि भद्रबाहु स्वामि का बराहमिहर नामक भाई था, वह किसी कारण से ईर्ष्यावश होकर जैन साधुपन का त्याग करके दूसरे धर्म का अनुयायी हो गया था। तब से ज्योतिषशास्त्र द्वारा अपना महत्व बतलाकर जैन साधुओं की निंदा करने लगा। एक बार एक राजा की सभा में भद्रबाहु ने उसकी ज्योतिषशास्त्र विषयक भूल बतलाई इससे वह और भी अधिक जैन धर्म का द्वेषी हो गया। अंत में मरकर वह किसी हल्की योनि का देव हआ और वहां पर पूर्वजन्म का स्मरण करने पर जैन धर्म पर उसका द्वेष फिर भडक उठा। इस द्वेष से अन्ध होकर उसने जैन संघ में मारी का उपद्रव किया। तब उसकी शांति के लिए श्री संघ की प्रार्थना पर श्री भद्रबाहु स्वामी ने सात गाथा का यह उवसर्गहर स्तोत्र बनाया। वह स्तोत्र पढने, स्मरण करने तथा सुनने से मारी शांत हो गई। ऐसा चमत्कार देखकर लोग निरंतर इस स्तोत्र का जाप पाठ करने लगे। इसके प्रभाव से धरणेन्द्र को प्रत्यक्ष होना पडता था। धरणेन्द्र की प्रार्थना से गुरु महाराज ने दो गाथाएँ निकाल दी। इस समय इस स्तोत्र में पांच गाथाएं है उनका स्मरण करने से सब प्रकार के उपद्रव - उपसर्ग शांत हो जाते हैं। श्री भद्रबाहु का समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी है। हे भगवंत ! विषधर स्फुलिंग मंत्र की बात तो दूर रही सिर्फ आपको किया हुआ प्रणाम भी बहुत फलों को देता है। अर्थात् प्रणाम मात्र करने वाले जीव फिर वह चाहे मनुष्य गति में हो अथवा तिर्यंच गति में हो दुःख, दरिद्रता तथा दुर्दशा को नहीं पाते। हे भगवन् ! चिंतामणी रत्न और कल्पवृक्ष से भी अधिक महिमा वाला आपका सम्यक्त्व पा लेने पर जीव किसी भी विघ्न के बिना सरलता से अजरामर स्थान अर्थात् मोक्ष पद को पाते हैं। हे महायशस्वी प्रभो ! इस प्रकार भक्तिपूर्ण हृदय से आपकी स्तुति करके मैं चाहता हूँ कि भव - भव में मुझकों आपकी कृपा से सम्यक्त्व की प्राप्ति हो। * पणिहाण सुत्तं * (जय वीयराय सूत्र) जय वीयराय ! जग गुरु ! होऊ ममं तुह पभावओ भयवं ! भव निव्वेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफल सिद्धी ||1|| antatuswww.jatherlotary.org 97
SR No.004052
Book TitleJain Dharm Darshan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2011
Total Pages146
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size25 MB
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