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अ०८/ प्र०३
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /४५ इस प्रकार हम देखते हैं कि उपर्युक्त 'नन्दी' आदि संघ-गण-गच्छों का विकास मूलसंघीय कुन्दकुन्दान्वय में ही हुआ था, अतः 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रो० हार्नले द्वारा प्रकाशित नन्दिसंघ या सरस्वतीगच्छ की पट्टावली वस्तुतः कुन्दकुन्दान्वय की पट्टावली है।
उपर्युक्त प्रतिपादन का सार इस प्रकार है।
१. 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रकाशित पट्टावली की आधारभूत पट्टावलियों में न तो 'पट्टाधीश' शब्द का प्रयोग है, न 'भट्टारक' शब्द का, इसलिए आचार्य हस्तीमल जी ने इन शब्दों का प्रयोग मानकर 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी'-वाली पट्टावली को जो भट्टारकपरम्परा की मूल पट्टावली मान लिया है, वह उनका महान् भ्रम है। __२. कुन्दकुन्दान्वय में नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ का विकास कुन्दकुन्द के अस्तित्वकाल (ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी) से ग्यारह सौ वर्षों बाद हुआ था, अतः वे नन्दिसंघ के नहीं थे। इसलिए नन्दिसंघ की पट्टावली को भट्टारकपट्टावली मान लेने पर भी वे भट्टारक सिद्ध नहीं होते।
३. 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में छपी पट्टावली वस्तुतः कुन्दकुन्दान्वय की पट्टावली है। उसमें दिगम्बराचार्यों के भी नाम हैं और मुनिश्रावकेतरलिंगी 'भट्टारकों' के भी। इसलिए भी उसे केवल नन्दिसंघ के भट्टारक-सम्प्रदाय की पट्टावली मान लेना महाभ्रान्ति
आगे 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' की पट्टावली में निर्दिष्ट उन तथ्यों की ओर ध्यान आकृष्ट कर रहा हूँ , जिनसे पट्टावली स्वयं ही आचार्य हस्तीमल जी के उपर्युक्त मत को मिथ्या सिद्ध करती है।
कुन्दकुन्द भट्टारकप्रथा के बीजारोपण से पूर्ववर्ती
आचार्य जी ने कहा है कि भद्रबाहु-द्वितीय से आरंभ होनेवाली नन्दिसंघ की पूर्वोद्धृत पट्टावली 'दि इण्डियन ऐण्टीक्वेरी' के आधार पर इतिहास के विद्वानों द्वारा कालक्रमानुसार तैयार की गई है और भट्टारकपरम्परा के उद्भव, प्रसार एवं उत्कर्ष काल के विषय में युक्तिसंगत एवं सर्वजन-समाधानकारी निर्णय पर पहुँचने के लिए उसके आचार्यों की नामावली बड़ी सहायक सिद्ध होगी। (देखिए , द्वितीय प्रकरण का शीर्षक १)। अर्थात् आचार्य जी की दृष्टि में नन्दिसंघ की पूर्वोद्धृत पट्टावली प्रामाणिक है। यद्यपि आचार्य जी के कथन में इतना संशोधन आवश्यक है कि नन्दिसंघ की पूर्वोक्त पट्टावली 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' के आधार पर इतिहास के विद्वानों
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