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४४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०३ कन्नड़ शिलालेख (समय अंकित नहीं है) से सूचित होता है कि देशिक-(देशीय)गण कोण्डकुन्दान्वय से उत्पन्न हुआ था-"अय महित-कोण्डकुन्दान्वय-सम्भवदेशिकाख्य-गणदोल् गुणिगळु ।" (जै. शि. सं. / मा. च. / भा. ३ / ले. क्र.८३४)।
श्रवणबेलगोल के पूर्वोद्धृत १३९८ ई० के स्तम्भलेख (१०५(२५४)) में भी कहा गया है कि आचार्य अर्हद्वलि ने कुन्दकुन्दान्वय नामक मूलसंघ को नन्दी आदि चार संघों में विभाजित किया था—'अर्हद्वलिस्सङ्घचतुर्विधं स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसर्छ ।'
किन्तु इसमें मूलसंघीय कुन्दकुन्दान्वय को अर्हदलि द्वारा विभाजित किये जाने का कथन समीचीन नहीं है, क्योंकि अर्हद्वलि को सभी पट्टावलियों में कुन्दकुन्द से पूर्ववर्ती बतलाया गया है। तथापि उक्त कथन से यह तथ्य अवश्य प्रकाशित होता है कि नन्दिसंघ का विकास कुन्दकुन्दान्वय में ही हुआ था। निम्नलिखित शिलालेख में कथन है कि कुन्दकुन्द के अन्वय में उमास्वाति मुनीश्वर आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे
श्री पद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्रसज्जात-सुचारणार्द्धिः॥ ४॥ अभूदुमास्वाति - मुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छः।
तदन्वये तत्ससदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥ ५॥६३ श्रवणबेलगोल के शक सं० १०८५ (११६३ ई०) में उत्कीर्ण स्तम्भाभिलेख में श्रुतकेवली भद्रबाहु के अन्वय में चन्द्रगुप्त को, चन्द्रगुप्त के अन्वय में कुन्दकुन्द को और कुन्दकुन्द के अन्वय में उमास्वाति, बलाकपिच्छ, समन्तभद्र, पूज्यपाद देवनन्दी, अकलंकदेव आदि अनेक आचार्यों को उत्पन्न बतलाया गया है।६४
'जैन-शिलालेख-संग्रह' (मा. च.) के प्रथम-भागान्तर्गत लेख क्र. ५४, ५५, १०५ एवं १०८ और तृतीयभाग के विजयनगर-लेख क्र. ५८५ में भी कुन्दकुन्दान्वय के अनेक आचार्यों के नाम दिये गये हैं।
४६६ ई० के मर्करा-ताम्रपत्राभिलेख में कुन्दकुन्दान्वय-प्रसूत, गुणचन्द्र-भटार आदि छह आचार्यों का वर्णन है।
६३. जैन-शिलालेख-संग्रह / माणिकचन्द्र / भाग १/ ले.क्र. ४७ (१२७)/ शक सं.१०३७ (१०१५
ई.)। ६४. वही / भा.१ / लेख क्र. ४० (६४)। मूलपाठ इसी अध्याय के अन्त में विस्तृत सन्दर्भ में
देखिए।
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