________________
अ०८ / प्र० ३
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ४३
यदि उन्हें केवल भट्टारकसम्प्रदाय की पट्टावलियाँ माना जाय, तो उनमें तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वाति का भी नाम है, वे भी भट्टारक सिद्ध होंगे। किन्तु यह आचार्य हस्तीमल जी को स्वीकार्य नहीं होगा, क्योंकि श्वेताम्बर - परम्परा में उमास्वाति मुनिपद के सम्मान से विभूषित वाचकपदधारी साधु माने गये हैं। उन्हें वे मुनिपद के सम्मान से रहित, गृहस्थों का कर्मकाण्ड करानेवाला, दक्षिणाग्राही, जीविकोपार्जक, मठवासी, अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी भट्टारक कैसे मान सकते हैं ? तथा 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' (Vol.XX, pp. 344-347 ) में जो प्राकृत- पट्टावली दी गई है, वह भी नन्दिसंघ, बलात्कारगण और सरस्वतीगच्छ की पट्टावली है। उसमें गौतम, सुधर्मा और जम्बूस्वामी, इन केवलियों और श्रुतकेवली भद्रबाहु के भी नाम हैं। वे भी उपर्युक्त प्रकार के अजिनोक्त - सवस्त्रसाधु - लिंगी भट्टारक सिद्ध होंगे। यह भी आचार्य हस्तीमल जी को मान्य नहीं होगा, क्योंकि श्वेताम्बर - परम्परा भी उन्हें केवली और श्रुतकेवली ही मानती है। केवली और श्रुतकेवली को तो उपर्युक्त प्रकार का भट्टारक मानने की वे कल्पना भी नहीं कर सकते। इससे स्पष्ट है कि नन्दिसंघ की पट्टावलियाँ केवल भट्टारकसम्प्रदाय की पट्टावलियाँ नहीं हैं, उनमें जिनलिंगी मुनि भी सम्मिलित हैं । अतः 'दि इण्डियन एण्टिक्वेरी' में अँगरेजी में छपी तालिकाबद्ध नन्दिसंघीय पट्टावली में आचार्य कुन्दकुन्द का नाम होने पर भी यह सिद्ध नहीं होता कि वे भट्टारकपरम्परा के पट्टाधीश थे। वे जिनलिंगधारी आगमानुकूल चर्या करनेवाले दिगम्बराचार्य थे।
यदि नन्दिसंघ की पट्टावलियों को भट्टारकपरम्परा की पट्टावलियाँ मानकर यह कहा जाय कि उमास्वामी तो श्वेताम्बर थे, उन्हें बलात् नन्दिसंघ की पट्टावलियों में शामिल कर लिया गया है, तो यह भी कहा जा सकता है कि कुन्दकुन्द भट्टारक नहीं थे, उन्हें बलात् भट्टारकपरम्परा की पट्टावलियों में दर्शा दिया गया है। इस प्रकार उक्त तर्क से यही सिद्ध होगा कि कुन्दकुन्द भट्टारकसम्प्रदाय के नहीं थे ।
४
इण्डियन - ऐण्टिक्वेरी-पट्टावली कुन्दकुन्दान्वय की पट्टावली
यहाँ एक प्रश्न उठ सकता है कि जब आरंभ में कुन्दकुन्दान्वय शब्द ही प्रचलित था और नन्दिसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ, वक्रगच्छ, बलगारगण (बलात्कारगण), सरस्वतीगच्छ, क्राणूगण, तिन्त्रिणीकगण, मेषपाषाणगण, द्रविणगण ( द्रमिळगण) आदि का विकास कुन्द-कुन्द के सैकड़ों वर्ष बाद हुआ, तब ये कुन्दकुन्दान्वय के साथ कैसे जुड़े? इस प्रश्न का समाधान स्पष्ट है कि इनका विकास कुन्दकुन्दान्वय में ही हुआ था, इसलिए उसके साथ इनका जुड़ना स्वाभाविक था । कुन्दकुन्दान्वय में ही इनके विकसित होने के उल्लेख भी मिलते हैं । चिदरवल्लि (कर्नाटक) के निम्नलिखित
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org