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________________ ४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०३ निवास से आये मुनियों के भी दो संघ बनाये गये : सेनसंघ और भद्रसंघ तथा शाल्मलीमहावृक्ष के मूल एवं खण्डकेसरवृक्ष के मूल से आये हुए मुनिसमूहों को भी क्रमशः गुणधर, गुप्ति, सिंह और चन्द्र, इन चार संघों में बाँटा।६° इस प्रकार आचार्य अर्हद्वलि 'नन्दी' आदि विभिन्न मुनिसंघों के प्रवर्तक थे-"एवं तस्याहदलेर्मुनिजनसङ्घ-प्रवर्तकस्य --।"६१ श्रवणबेलगोल के पूर्वोद्धृत १३९८ ई० के स्तम्भलेख में भी कहा गया है कि अर्हद्वलि ने कुन्दकुन्दान्वय के मूलसंघ को सेन, नन्दी, देव और सिंह संघों में विभक्त किया था। वहीं के एक अन्य पूर्वोद्धृत १४३३ ई० के शिलालेख में वर्णित है कि भट्ट अकलंकदेव के दिवंगत हो जाने के बाद उनके अन्वय के मुनियों में यह चतुर्विध संघभेद हुआ था। ये साहित्यिक और शिलालेखीय उल्लेख इस तथ्य पर प्रकाश डालते हैं कि 'नन्दी' आदि संघ मूलतः मुनियों के ही संघ थे। आगे चलकर जब ईसा की १२वीं शताब्दी में इन संघों के कतिपय मन्दिर-मठवासी दिगम्बरमुनि 'दिगम्बरमुनियों के समान पिच्छीकमण्डलु रखते हुए , अजिनोक्त (जिनेन्द्र द्वारा अनुपदिष्ट) सवस्त्र साधुलिंग धारण कर दिगम्बरजैन गृहस्थों के धर्मगुरु की भूमिका निभाने लगे, तब इन संघों में भट्टारकपरम्परा भी चल पड़ी। इस कारण इन संघों की पट्टावलियों में मुनियों और अजिनोक्तसवस्त्रसाधु-लिंगधारी भट्टारकों, दोनों के नाम मिलते हैं। ये पट्टावलियाँ उपर्युक्त भट्टारकों द्वारा ही रचित हैं, क्योंकि इनमें अन्तिम नाम भट्टारक का ही है, तथापि पट्टावलीकारों ने द्वितीय भद्रबाहु, गुप्तिगुप्त, माघनन्दी, कुन्दकुन्द, उमास्वाति, लोहाचार्य आदि को मुनिपुङ्गव, पूर्वपदांशवेदी, मुनिचक्रवर्ती, महामुनि, जातरूपधर, सत्संयम से चारणऋद्धि प्राप्त करनेवाले आदि विशेषणों से विभूषित किया है।६२ इससे सिद्ध है कि स्वयं भट्टारकपरम्परा इन आचार्यों को परम दिगम्बरमुनि मानती थी। अतः पट्टावलीकार भट्टारकों ने इनका अपने पूर्वज जिनलिंगधारी महामुनियों के रूप में ही पट्टावलियों में सादर उल्लेख किया है। इससे सिद्ध है कि नन्दिसंघ की पट्टावलियों में केवल भट्टारकों के नाम नहीं हैं, अपितु मुनियों के भी हैं। ६०. श्रुतावतार / कारिका ९३-९४। ६१. वही/ कारिका १०१। ६२. क- इसी अध्याय के अन्त में विस्तृत सन्दर्भ के अन्तर्गत 'प्रथम शुभचन्द्रकृत गुर्वावली' देखिए। ख-"श्री कोण्डकुन्दादिमुनीश्वराख्यस्सत्संयमादुद्गतचारणर्द्धिः।" जैन-शिलालेख-संग्रह। माणिकचन्द्र / भाग १/ले. क्र.४०। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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