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अ०८/ प्र० ३ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /४१ पाँच पट्टावलियों के आधार पर इण्डियन-एण्टिक्वेरी-वाली पट्टावली तैयार की गई है, उनके रचयिता भट्टारक ही थे। प्रश्न उठता है कि १२वीं शताब्दी ई० से पूर्व के जो आचार्य नन्दिसंघ के थे ही नहीं, उनके नाम प्रस्तुत पट्टावली में क्यों रखे गये? इसका उत्तर यह है कि वे उसी कुन्दकुन्दान्वय में हुए थे, जिसमें उत्तरवर्ती मुनि
और भट्टारक हुए थे। इस साम्य के कारण उन्हें भी प्रस्तुत पट्टावली की आधारभूत पट्टावलियों में शामिल किया गया है। इसलिए उनके भी नाम प्रस्तुत पट्टावली में मिलते हैं। इस प्रकार इण्डियन-ऐण्टिक्वेरी-वाली नन्दिसंघ की पट्टावली में केवल भट्टारकों के नाम नहीं हैं,अपितु मुनियों के भी हैं।
मूलसंघीय मुनिवर्ग का ही 'नन्दी' आदि संघों में विभाजन
वस्तुतः नन्दी, सेन, देव, सिंह आदि संघ मूलतः मुनियों के ही संघ थे, इसका साहित्यिक प्रमाण यह है कि १०वीं शताब्दी ई० के आचार्य इन्द्रनन्दी ने, जब भट्टारकपरम्परा का उदय ही नहीं हुआ था, तब अपने 'श्रुतावतार' ग्रन्थ में लिखा है कि मूलसंघ के आचार्य अर्हद्वलि ने दिगम्बरमुनियों के मूलसंघ को नन्दी, सेन आदि संघों में विभाजित किया था।
'श्रुतावतार' में वे कहते हैं कि आचार्य अर्हद्वलि जब सौ योजन के भीतर रहनेवाले मुनियों को बुलाकर पांच वर्षों की समाप्ति पर होनेवाला प्रतिक्रमण करा रहे थे, तब उन्होंने मुनिसमूह से पूछा- 'क्या सब मुनि आ गये हैं?' ५६ तब मुनियों ने उत्तर दिया, हाँ, भगवन्! हम लोग अपने-अपने सम्पूर्ण संघ के साथ आ गये हैं।' यह सुनकर आचार्य अर्हद्बलि ने सोचा कि अब इस कलिकाल में भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में संघ आदि के पक्षपात को लेकर ही जैनधर्म चलेगा। इसलिए उन्होंने जो मुनि गुफा से आये थे, उनको नन्दिसंघ और वीरसंघ में विभाजित किया।५८ जो अशोक वृक्षों के उद्यान से आये थे, वे अपराजितसंघ और देवसंघ में विभक्त किये गये।५९ पंचस्तूप५६. अथ सोऽन्यदा युगान्ते कुर्वन् भगवान्युगप्रतिक्रमणम्।
मुनिजनवृन्दमपृच्छत्किं सर्वेऽप्यागता यतयः॥ ८८॥ श्रुतावतार। ५७. तेऽप्यूचुर्भगवन्वयमात्मात्मीयेन सकलसङ्केन।
सममागतास्ततस्तद्वचः समाकर्ण्य सोऽपि गणी॥ ८९॥ काले कलावमुष्मिन्नितः प्रभृत्यत्र जैनधर्मोऽयम्।
गणपक्षपातभेदैः स्थास्यति नोदासभावेन ॥ ९०॥ श्रुतावतार। ५८. इति सञ्चिन्त्य गुहायाः समागता ये यतीश्वरास्तेषु।
कांश्चिन्नन्द्यभिधानान् कांश्चिद्वीराह्वयानकरोत् ॥ ९१॥ श्रुतावतार। ५९. प्रथितादशोकवाटात्समागता ये मुनीश्वरास्तेषु। __कांश्चिदपराजिताख्यान्कांश्चिद् देवाह्वयानकरोत् ॥ ९३॥ श्रुतावतार ।
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