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________________ ४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०३ आदि से सम्बद्ध घोषित करने लगे। इस प्रकार नन्दी आदि संघों का मुनियों और भट्टारकों, दोनों से सम्बन्ध था। आचार्य अर्हद्बली के द्वारा मूलसंघ को नन्दी आदि संघों में विभाजित किये जाने की कथा काल्पनिक प्रतीत होती है, क्योंकि श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में ही इसके विषय में परस्परविरोधी उल्लेख मिलते हैं। १३९८ ई० के शिलालेख में ५३ कहा गया है कि मूलसंघ का चतुर्विध संघों में विभाजन अर्हद्बली ने किया था, जब कि १४३३ ई० का शिलालेख ५४ कहता है कि अकलंकदेव के दिवंगत होने के पश्चात् उनके अन्वय के मुनि अपने आप चार संघों में विभाजित हो गये। वस्तुतः 'नन्दी' आदि संघ स्वयं विकसित हुए थे, क्योंकि पंचस्तूपान्वय, पुन्नाट, कुन्दकुन्दान्वयी-द्रविण आदि ऐसे संघों का अस्तित्व भी था, जो आचार्य अर्हद्बली द्वारा निर्मित नहीं बतलाये गये हैं। उपर्युक्त प्रमाणों से यह निर्णीत हो जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द नन्दिसंघ, बलात्कारगण तथा सरस्वतीगच्छ के विकसित होने के बहुत पहले उत्पन्न हुए थे,अतः वे नन्दिसंघ के आचार्य नहीं थे। इसलिए यदि नन्दिसंघ को भट्टारकसंघ माना जाये, तो कुन्दकुन्द भट्टारक सिद्ध नहीं होते। २ नन्दिसंघीय पट्टावली केवल भट्टारक-परम्परा की पट्टावली नहीं यद्यपि इण्डियन-ऐण्टिक्वेरी-वाली नन्दिसंघीय पट्टावली में १०वीं शताब्दी ई० के पहले जिन आचार्यों के नाम उल्लिखित हैं, वे नन्दिसंघ, बलात्कारगण या सरस्वतीगच्छ के नहीं थे, तथापि उससे उत्तरवर्ती सभी आचार्य या पट्टधर भट्टारकसम्प्रदाय के थे, ऐसा नहीं मान लेना चाहिए । क्योकिं १० वीं शताब्दी ई० से भी मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण में जिनलिंगधारी मुनि होते आये हैं। भट्टारक-परम्परा तो १२वीं शताब्दी ई० से आरंभ हुई थी। उसके साथ भी मुनिपरम्परा विरलरूप में चलती रही।५ किन्तु भट्टारक-परम्परा का वर्चस्व स्थापित हो जाने से १२वीं शताब्दी ई० से नन्दिसंघीय पट्टावली में भट्टारकसम्प्रदाय के ही उत्तराधिकारियों के नाम रखे गये हैं, क्योंकि जिन ५३. जैन-शिलालेख-संग्रह / माणिकचन्द्र / भाग १ / ले. क्र.१०५ (२५४) / श्लोक २६ । ५४. वहीं / भा.१/ ले.क्र.१०८ (२५८)/ श्लोक १८-२१ । ५५. जैसा कि पं० आशाधर जी ने कहा है-'खद्योतवत् सुदेष्टारो हा द्योतन्ते क्वचित् क्वचित्' अर्थात् खेद है कि सच्चे उपदेशक मुनि आज कहीं-कहीं ही दिखाई देते हैं (पं० नाथूराम प्रेमी: जैन साहित्य और इतिहास / द्वि.सं./ पृ.४८८ से उद्धृत)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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