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________________ ४६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०३ द्वारा तैयार नहीं की गई है, अपितु प्रो० हार्नले को राजस्थान से जो नन्दिसंघ-सरस्वतीगच्छ की पट्टावलियाँ प्राप्त हुई थीं, उनके समन्वित रूप को एक तालिका में निबद्ध कर अपनी टिप्पणियों के साथ, उन्होंने 'दि इण्डियन एण्टीक्वेरी' नामक शोधपत्रिका (रिसर्च जर्नल) में प्रकाशित कराया था। आचार्य हस्तीमल जी द्वारा पूर्वोद्धृत नन्दिसंघ की पट्टावली उसी का हिन्दी रूप है। आचार्य हस्तीमल जी ने उसे भट्टारकपरम्परा के उद्भव-विकासउत्कर्षकाल आदि के विषय में युक्तिसंगत एवं सर्वजन-समाधानकारी निर्णय पर पहुँचाने में सहायक मानकर उसकी प्रामाणिकता स्वीकार की है। यही प्रामाणिक पट्टावली बतला रही है कि आचार्य कुन्दकुन्द भट्टारकप्रथा के बीजवपन से पूर्व अर्थात् विक्रम संवत् ४९ ( ईसापूर्व ८वें वर्ष ) में आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हो गये थे। और आचार्य हस्तीमल जी की कल्पना के अनुसार भट्टारकप्रथा के प्रथम स्वरूप का आरंभ वीर नि० सं० ६४०, तदनुसार ई. सन् ११३ के लगभग हुआ था। इससे सिद्ध है कि कुन्दकुन्द भट्टारक-परम्परा के बीजारोपण से पूर्व ही आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हो गये थे। अतः आचार्य जी ने उन्हें जो भट्टारकसम्प्रदाय का पट्टाधीश मान लिया है, वह उक्त पट्टावली में निर्दिष्ट इस तथ्य से ही मिथ्या सिद्ध हो रहा है। कुन्दकुन्द को ५वीं शती ई० में मानने पर सभी पट्टधरों का अस्तित्व मिथ्या किन्तु विडम्बना यह है कि आचार्य हस्तीमल जी उक्त पट्टावली को एक ओर जहाँ भट्टारक-परम्परा के विकासकाल के विषय में युक्तिसंगत निर्णय पर पहुँचानेवाली मानते हैं, वहीं दूसरी ओर उसमें बतलाये गये कुन्दकुन्द के पट्टकाल को युक्तिसंगत नहीं मानते।६५ उनकी मान्यतानुसार कुन्दकुन्द का काल वीर नि० सं० १००० अर्थात् विक्रम संवत् ५३० (४७३ ई०) के लगभग है।६६ ऐसा मानने पर वह 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में बतलाये गये पट्टारोहणकाल वि० सं० ४९ से ४८१ वर्ष आगे चला जाता है। इस स्थिति में कुन्दकुन्द के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती सभी पट्टधरों का पट्टारोहणकाल ४८१ वर्ष आगे बढ़ जाता है, क्योंकि पट्टवली में दर्शायी गयी पट्टपरम्परा एक-दूसरे पट्टधर से जुड़ी हुई है और प्रत्येक पट्टधर का पट्टकाल भी निश्चित है, जिससे पूर्वापर पट्टधरों के बीच का कालान्तराल सुनिश्चित है। उदाहरणार्थ निम्नलिखित तालिका द्रष्टव्य है ६५. जैनधर्म का मौलिक इतिहास / भाग३ / पृ.१४२ । ६६. विस्तृत विवरण दशम अध्याय के तृतीय प्रकरण में द्रष्टव्य है। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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