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अ०८/ प्र०३
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /४७
पट्टधर
इण्डि०एण्टि० | कालान्तराल | आ० । आ० कालान्तराल । पट्टावली में (पूर्वपट्टधर का हस्तीमल | हस्तीमल (पूर्व पट्टधर का पट्टारोहणवर्ष | पट्टारोहणवर्ष | जी के | जी के पट्टारोहणवर्ष (विक्रमसंवत्) एवं पट्टस्थवर्ष) |मतानुसार | अनुसार पट्टा- | एवं पट्टस्थवर्ष)
बढे हुए | रोहण वर्ष
वर्ष (विक्रम संवत्)
५२१
१. भद्रबाहु
४८५ | (द्वितीय) २. गुप्तिगुप्त (४+२२)
५०७ (४८५+२२) ३. माघनन्दी (२६+१०)
५१७ (५०७+१०) __(प्रथम) ४. जिनचन्द्र (३६+४)
(५१७+४) (प्रथम) ५. कुन्दकुन्द ४९ (४०+९)
५३० (५२१+९) ६. उमास्वामी १०१ (४९+५२)
५८२ (५३०+५२) ७. लोहाचार्य | १४२ (१०१+४१) ४८१ ६२३ (५८२+४१) | (द्वितीय)
(शेष पट्टधरों के नाम आदि इसी अध्याय के 'विशेष सन्दर्भ' में उद्धृत इण्डियनऐण्टिक्वेरी-पट्टावली में द्रष्टव्य हैं।) .
__ उपर्युक्त तालिका में तीसरे और छठे कालम में कोष्ठक के भीतर धनचिह्न के पूर्व की संख्या पूर्वोल्लिखित (अपने से ऊपर दर्शाये गये) पट्टधर के पट्टारोहणवर्ष को तथा बाद की संख्या उसके पट्टस्थवर्षों को सूचित करती है। पूर्वोल्लिखित पट्टधर का पट्टकाल (पट्टस्थवर्ष) उसके तथा उत्तरोल्लिखित पट्टधर के बीच का निश्चित कालान्तराल है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द का पट्टारोहणकाल ४८१ वर्ष आगे बढ़ने पर उनके आगे-पीछे के सभी पट्टधरों का पट्टारोहणकाल ४८१ वर्ष आगे बढ़ जाता है, तभी प्रत्येक पट्टधर का पट्टकाल अर्थात् पूर्वापर पट्टधरों के बीच का कालान्तराल यथावत् रहता है। किन्तु ४८१ वर्ष आगे बढ़े हुए काल में उन पट्टधरों का अस्तित्व ही नहीं था। उदाहरणार्थ, वि० सं० ४८५ में भद्रबाहु-द्वितीय का अस्तित्व
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