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________________ ४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०३ नहीं था, वे उसके ४८१ वर्ष पूर्व वि० सं० ४ में पट्टधर हो चुके थे। वि० सं० ५०७ में गुप्तिगुप्त विद्यमान नहीं थे, वे उसके ४८१ वर्ष पूर्व वि० सं० २६ में पट्टारूढ़ हो चुके थे। माघनन्दी प्रथम वि० सं० ५१७ के ४८१ वर्ष पूर्व ही स्वर्गवासी हो गये थे। आचार्य जिनचन्द्र प्रथम वि० सं० ५२१ में जीवित नहीं थे। तथा दि इण्डियनऐण्टिक्वेरी-पट्टावली में क्रमांक ९ से २६ तक के जिन यशोनन्दी आदि १८ पट्टधरों को भद्दलपुर का पट्टधर बतलाया गया है, उनका पट्टकाल विक्रमसंवत् ६४२ को पार कर जाता है, जब भद्दलपुर के पट्ट का अस्तित्व ही नहीं रह गया था। भद्दलपुर के पट्ट पर वि० सं० ६४२ के बाद कोई आसीन नहीं हुआ। २६वें आचार्य मेरुकीर्ति वि० सं० ६४२ में भद्दलपुर के पट्ट पर बैठनेवाले अन्तिम आचार्य थे। उनके बाद भद्दलपुर का पट्ट पट्टावली के अनुसार समाप्त हो गया। उपर्युक्त १८ आचार्य अन्य स्थानों के पट्टधर हों, यह भी संभव नहीं है, क्योंकि २६ वें पट्टधर मेरुकीर्ति (विक्रम संवत् ६४२-६८६) के पश्चात् भद्दलपुर की पट्टपरम्परा समाप्त हो गई। उनके शिष्य महाकीर्ति विक्रम सं० ६८६ में उज्जयिनी के पट्ट पर बैठे। उनसे उज्जयिनी की पट्टपरम्परा प्रारंभ हुई। उनके बाद विष्णुनन्दी आदि अन्य १७ आचार्य उज्जयिनी के पट्टधर हुए, जिनमें अन्तिम माघचन्द्र का पट्टकाल वि० सं० ९९० से १०२३ था। उनके बाद उज्जयिनी की पट्टपरम्परा का भी अन्त हो गया और उनके शिष्य लक्ष्मीचन्द्र वि० सं० १०२३ में चन्देरी के पट्ट पर आसीन हुए। इस पट्ट के अन्तिम आचार्य लोकचन्द्र वि० सं० १०६६ से १०७९ तक पट्टधर रहे और उनके बाद उनके शिष्य श्रुतकीर्ति वि० सं० १०७९ में विदिशा के पट्टधश हुए। विदिशा के अन्तिम पट्टधर महाचन्द्र के शिष्य माघचन्द्र कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) के पट्ट पर बैठे। उनके शिष्य ब्रह्मनन्दी बारों के पट्टधर हुए। बाराँ के अन्तिम पट्टधर सिंहकीर्ति थे, जिनके शिष्य हेमकीर्ति को ग्वालियर का पट्ट प्राप्त हुआ। ग्वालियर के अन्तिम पट्टधर वसन्तकीर्ति (वि० सं० १२६४) हुए। उनके शिष्य प्रख्यातकीर्ति या विशालकीर्ति अजमेर के पट्टधर बने। प्रभाचन्द्र इस पट्ट के अन्तिम अधिकारी थे। उनके शिष्य पद्मनन्दी को दिल्ली का पट्ट प्राप्त हुआ, जिस पर क्रमशः शुभचन्द्र और जिनचन्द्र आसीन हुए।६८ ६७. भट्टारक सम्प्रदाय / पृ.९३। ६८. "श्रीबलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीमहि (नन्दि) संघे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्रीवसन्त कीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ० श्रीविशालकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ० श्रीदमनकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ० श्रीधर्मचन्द्रदेवाः तत्पट्टे भ० श्री रत्नकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ० श्रीप्रभाचन्द्रदेवाः तत्पट्टे भ० श्रीपद्मनन्दिदेवाः तत्पट्टे भ० शुभचन्द्रदेवाः॥" भट्टारकसम्प्रदाय/निषीदिकालेख/लेखांक २४४। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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