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अ०८/ प्र० ३
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /४९ ___ इनके पश्चात् पट्ट दो भागों में विभक्त हो गया। एक गद्दी नागौर में स्थापित हुई और दूसरी चित्तौड़ में। जिनचन्द्र के शिष्य प्रभाचन्द्र वि० सं० १५७१ में चित्तौड़ के पट्टधर हुए। तत्पश्चात् उनके शिष्य धर्मचन्द्र को यह पट्ट प्राप्त हुआ।६९ उनके बाद अन्य १४ पट्टधर इस पट्ट पर आसीन हुए। जिनचन्द्र के अन्य शिष्य रत्नकीर्ति वि० सं० १५८१ में नागौर के प्रथम पट्टधर बने। तदनन्तर भुवनकीर्ति आदि अन्य २५ भट्टारकों ने यह पद प्राप्त किया।
नागौर के पट्टधरों में २३ वें हेमकीर्ति वि० सं० १९१० में पट्टपर आसीन हुए थे। उनके बाद क्षेमेन्द्रकीर्ति, मुनीन्द्रकीर्ति और कनककीर्ति ये तीन और उस पद पर आरूढ़ हुए। इन चारों का पट्टकाल यदि दस-दस वर्ष माना जाये तो पूर्वोद्धृत 'इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' की पट्टावली के अन्तिम पट्टधर का काल वि० सं० १९५० में पूर्ण होता है।
इससे स्पष्ट है कि यशोनन्दी आदि १८ आचार्य किसी अन्य स्थान के पट्टधर नहीं थे, भद्दलपुर के ही थे, किन्तु उनका पट्टारोहणकाल ४८१ वर्ष आगे बढ़ जाने से उस काल में पहुँच जाता है, जब भद्दलपुर के पट्ट का अस्तित्व ही बाकी नहीं था। इसके अतिरिक्त आचार्य हस्तीमल जी द्वारा उद्धृत इण्डियन-ऐण्टिक्वेरी-पट्टावली में चित्तौड़पट्ट और नागौरपट्ट के ३९ पट्टधरों का पट्टारोहणकाल वि० सं० १५८६ (ई० सन् १५२९) से लेकर वि० सं० १९४० (ई० सन् १८८३) तक निर्दिष्ट है। (देखिये, अध्याय ८/ प्र.२ / शी.१)। इन सबका पट्टारोहणकाल ४८१ वर्ष आगे बढ़ जाने पर इनका अभी (ई० सन् २००८ में) जन्म लेना ही घटित नहीं होता। इससे सभी पट्टधरों का अस्तित्व मिथ्या हो जाता है, क्योंकि वे उस काल में ढूँढ़े नहीं मिलते।
आचार्य हस्तीमल जी द्वारा पूर्वोद्धृत 'इण्डियन ऐण्टीक्वेरी' की पट्टावली के हिन्दी अनुवाद में जिन मुनियों और भट्टारकों के नाम वर्णित हैं, उनमें से ८५ पट्टधरों (शुभचन्द्र, वि० सं० १४५० तक) का उल्लेख नन्दिसंघ की प्रथम-शुभचन्द्रकृत गुर्वावली १ तथा
६९. "श्रीमूलसंघे नन्द्याम्नाये ....भ० श्रीजिनचन्द्रदेवाः तत्पट्टे भ० श्रीप्रभाचन्द्रदेवाः तच्छिश्यमण्डलाचार्य
श्रीधर्मचन्द्रदेवाः ---।" नागकुमारचरित / भट्टारकसम्प्रदाय / लेखांक २६७। ७०. क-"इस (नागौर) शाखा का आरंभ भ० (भट्टारक) रत्नकीर्ति से होता है। आप
भ० जिनचन्द्र के शिष्य थे ---। आपका पट्टाभिषेक संवत् १५८१ की श्रावण शु० ५ को हुआ ---।" भट्टारकसम्प्रदाय / पृष्ठ १२१। । ख-"श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्रीपद्मनन्दिदेव तत्पट्टे भ० श्रीशुभचन्द्रदेव तत्पट्टे भ० श्रीजिणचन्द्रदेव मुनि-मण्डलाचार्य-श्रीरत्नकीर्तिदेव
---" (अणुव्रतरत्नप्रदीप / भट्टारकसम्प्रदाय / लेखांक २७९)। ७१. मूलपाठ इसी अध्याय के अन्त में विस्तृत सन्दर्भ में द्रष्टव्य है।
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