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________________ ५० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/प्र०३ एक अज्ञातकर्तृक विरुदावली २ में भी है। शेष नाम प्रो० जोहरापुरकर द्वारा अपने ग्रन्थ 'भट्टारकसम्प्रदाय' में उद्धृत पट्टावलियों में उपलब्ध होते हैं। इसलिए उनमें से किसी भी नाम की वास्तविकता का निषेध नहीं किया जा सकता। अतः आचार्य हस्तीमल जी की उपर्युक्त मान्यता युक्तियुक्त नहीं है। युक्तियुक्त न होने से प्रामाणिक नहीं है। पट्टावली में कुन्दकुन्द को वि० सं० ४९ अर्थात् ईसा- पूर्व ८ में पट्टारूढ़ बतलाया गया है। इसी काल में उनको पट्टारूढ़ मानने पर पट्टावली में वर्णित १२८ मुनियों और भट्टारकों का वि० सं० १९५० (ई० सन् १८९३) तक अपने-अपने निर्दिष्टकाल पर्यन्त पट्टारूढ़ होना उपपन्न होता है। अतः कुन्दकुन्द का इसी समय में पट्टारूढ़ होना युक्तियुक्त है, अत एव वह प्रामाणिक ठहरता है। अन्य साहित्यिक एवं शिलालेखीय प्रमाणों से भी यही काल निश्चित होता है, उन प्रमाणों का वर्णन दशम अध्याय में किया जायेगा। इस प्रकार जिस समय कुन्दकुन्द आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे, उस समय भट्टारकपरम्परा का बीजारोपण ही नहीं हुआ था, तब वे भट्टारकसम्प्रदाय के पट्टधर कैसे हो सकते हैं? यह नितान्त असंभव है। अतः आचार्य हस्तीमल जी ने जो यह उद्भावना की है कि कुन्दकुन्द भट्टारक-सम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे, वह सर्वथा अयुक्तियुक्त है, अतएव अप्रामाणिक है। माघनन्दी आदि का पट्टधर होना अन्य स्रोतों से प्रमाणित नहीं 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रकाशित पट्टावली जिन पट्टावलियों पर आधारित है, उनके अतिरिक्त नन्दिसंघ की अन्य किसी भी पट्टावली में यह उल्लेख नहीं है कि भद्रबाहु-द्वितीय, गुप्तिगुप्त, माघनन्दी, जिनचन्द्र, कुन्दकुन्द, उमास्वामी आदि भद्दलपुर या अन्य किसी स्थान के पट्टधर थे। प्रमाण के लिए प्रथम-शुभचन्द्रकृत नन्दिसंघ की गुर्वावली एवं अज्ञातकर्तृक विरुदावली द्रष्टव्य हैं।२ श्रुतसागरसूरि (१५ वीं शताब्दी ई०) स्वयं भट्टारक थे। उन्होंने कुछ भट्टारकों को तो देशविशेष का पट्टधर बतलाया है, ७२. नन्दिसंघ की अज्ञातकर्तृक विरुदावली व्यारा (सूरत) के शास्त्रभण्डार में हस्तलिखित रूप में मिली थी, जिसे 'जैनमित्र' के १९ जून १९२४ ई० के अंक में प्रकाशित किया गया था। इसका मूलपाठ डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री-कृत 'तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा' (खण्ड ४ पृ. ४३०-४४१) में अवलोकनीय है। ७३. देखिए , तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा'/खण्ड ४/पृ.३९३-३९९ एवं ४३० ४४१ एवं ४३०-४४१ तथा प्रस्तुत अध्याय के अन्त में विस्तृत सन्दर्भ। ७४. "गुर्जरदेशसिंहासनभट्टारकश्रीलक्ष्मीचन्द्रकाभिमतेन मालवदेशभट्टारकश्रीसिंहनन्दि-प्रार्थनया-।" श्रुतसागरसूरिकृत व्याख्या / यशस्तिलकचम्पू / तृतीय आश्वास / अन्तिम अनुच्छेद / पृ० ६२१ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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