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अ०८ / प्र० ३
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढ़न्त / ५१ उन्हें उनके गुरु
कहा,
किन्तु कुन्दकुन्द को किसी भी देश (स्थान) का पट्टधर नहीं जिनचन्द्रसूरि के पट्ट को अलंकृत करनेवाला ही कहा है। इससे स्पष्ट होता है कि भद्रबाहु - द्वितीय आदि दिगम्बराचार्यों के साथ 'भद्दलपुर का पट्टधर' विशेषण जोड़ने का कार्य उन भट्टारक - पट्टावलीकारों का है, जिनकी पट्टावलियों पर 'दि इण्डियन ऐण्टीक्वेरी' की पट्टावली आधारित है। नन्दिसंघ के भट्टारकों ने भट्टारक होने पर भी अपनी प्राचीनता और पूज्यकुलोत्पन्नता दर्शाने के लिए दिगम्बराचार्य भद्रबाहु - द्वितीय आदि को अपना पूर्वपुरुष बतलाया है। 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में छपी पट्टावली की आधारभूत पट्टावलियों के कर्त्ता - महोदय भी भट्टारक थे। उन्होंने कुछ आगे बढ़कर अपने मठाधीशत्व को आगमसम्मत सिद्ध करने के लिए द्वितीय भद्रबाहु आदि पूर्वपुरुषों के साथ भी 'भद्दलपुर का पट्टधर' विशेषण जोड़ दिया है। किन्तु अन्य किसी भी पट्टावली, शिलालेख या प्राचीन ग्रन्थ में उक्त दिगम्बराचार्यों के भद्दलपुर या अन्य स्थान का पट्टधर होने का उल्लेख नहीं है । अतः 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' की पट्टावली का वह उल्लेख अन्य स्रोतों से प्रमाणित नहीं होता । आचार्य हस्तीमल जी ने कुन्दकुन्द के लिए 'भद्दलपुर - पट्टधर' शब्द के भट्टारकीय मनगढ़ंत प्रयोग के आधार पर उन्हें भट्टारक घोषित कर दिया है। उन्हें यथार्थतः भट्टारक सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। सभी प्रमाणों से सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द स्थानविशेष के पट्टधर होने की गृहस्थ तुल्य प्रवृत्ति से कोसों दूर, आगमोक्त मुनिचर्या का अक्षरश: पालन करनेवाले दिगम्बराचार्य थे।
७५. इति श्रीपद्मनन्दि- कुन्दकुन्दाचार्य - वक्रगीवाचार्यैलाचार्य-गृद्धपिच्छाचार्य - नामपञ्चक - विराजितेन सीमन्धरस्वामिज्ञानसम्बोधितभव्यजनेन श्रीजिनचन्द्रसूरिभट्टारकपट्टाभरणभूतेन कलिकाल - सर्वज्ञेन विरचिते षट्प्राभृतग्रन्थे - ।" श्रुतसागरटीका / अन्तिम अनुच्छेद / दंसणपाहुड / गा.३६ /
पृ० ५० ।
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