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चतुर्थ प्रकरण भट्टारकसम्प्रदाय का असाधारण लिंग और प्रवृत्तियाँ
सम्प्रदायविशेष (विशिष्ट वेश और कर्मवाले धर्मगुरु-समुदाय) के अर्थ में 'भट्टारक' शब्द का प्रयोग करते समय बहुत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। इस शब्द का मूल अर्थ 'पूजनीय' एवं 'विद्वान्' है। अतः जिस भी व्यक्ति के साथ 'भट्टारक' विशेषण जुड़ा हुआ हो, उसे भट्टारकसम्प्रदाय का व्यक्ति मान लेने की भूल न कर ली जाय। यह ध्यान रखना होगा कि सम्प्रदायविशेष के अर्थ में 'भट्टारक' संज्ञा शास्त्रोक्त नहीं है। किसी भी शास्त्र में यह नहीं लिखा है कि 'इस' प्रकार के वेश और प्रवृत्तियोंवाले पुरुष को भट्टारक-सम्प्रदाय का व्यक्ति मानना चाहिए। विशेष प्रकार के लिंग (वेश) और प्रवृत्तियोंवाले पुरुषों के लिए यह संज्ञा अपने-आप रूढ़ हुई है। तब यह सुनिश्चित करना होगा कि 'पूजनीय' और 'विद्वान्' अर्थ से भिन्न अर्थ में कैसे लिंग और प्रवृत्तियोंवाले पुरुषसमूह के लिए 'भट्टारक' संज्ञा प्रसिद्ध हुई है? यह सुनिश्चित होने पर कि अमुक लिंग और अमुक प्रवृत्तियोंवाले पुरुषों के लिए भट्टारक नाम रूढ़ हुआ है, केवल उन्हें ही भट्टारकसम्प्रदाय का कहा जा सकता है, अन्यों को नहीं, भले ही उनकी कुछ प्रवृत्तियाँ भट्टारकसम्प्रदाय के पुरुषों की प्रवृत्तियों से मिलती हों। यदि उन्हें भी हम एक-दो प्रवृत्तियों की समानता के कारण भट्टारकसम्प्रदाय का मानने लगें, तो हम सम्प्रदाय-विशेष के अर्थ में 'भट्टारक' शब्द के प्रचलन का इतिहास सुनिश्चित नहीं कर पायेंगे। आगे यही सुनिश्चित किया जा रहा है कि सम्प्रदायविशेष के अर्थ में 'भट्टारक' शब्द कैसे लिंग और कैसी प्रवृत्तियोंवाले पुरुषों के लिए किस काल में रूढ़ हुआ है।
'भट्टारक' शब्द तीन अर्थों का सूचक संस्कृतसाहित्य में 'भट्टार' और 'भट्टारक' शब्दों का प्रयोग सम्मानसूचक उपाधि के रूप में हुआ है, जिससे श्रद्धास्पदता या पूज्यता द्योतित होती है। यथा
'भट्टारहरिश्चन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपायते।' ७६ अर्थात् माननीय हरिश्चन्द्र का गद्यकाव्य नृप के समान आचरण करता है।
विक्रम की पाँचवीं शताब्दी के गुप्तवंशी नरेश कुमारगुप्त के सिक्कों पर उन्हें परमभट्टारक उपाधि से विभूषित किया गया है। ७६. बाणभट्ट : 'हर्षचरित'। उच्छ्वास १/ श्लोक १२। ७७. पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री : कसायपाहुड / प्रस्तावना / भा.१ / पृ.५६।
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