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अ०८/प्र० ४
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /५३ ४३३ ई० (गुप्तकाल वर्ष ११३) के मथुरा-शिलालेख में भी कुमारगुप्त के नाम के पूर्व परमभट्टारक उपाधि जोड़ी गई है। यथा-"परमभट्टारक-महाराजाधिराजश्रीकुमारगुप्तस्य ---।" (जै.शि.सं./मा. च./भा.२/ ले.क्र.९२)।
८६० ई० के कोन्नूर-शिलालेख में महाराज अमोघवर्ष के साथ परमभट्टारक उपाधि का प्रयोग है-"परमभट्टारक-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीपृथ्वीवल्लभश्रीमदमोघवर्ष --- श्रीवल्लभनरेन्द्रदेवः।" (जै.शि.सं./मा.च./भा.२/ले.क्र.१२७)।
दिगम्बरजैन-सम्प्रदाय में ये दोनों उपाधियाँ तीन अर्थों को सूचित करने के लिए प्रयुक्त हुई हैं-१. आदर या पूज्यता, २. विद्वत्तादि गुण तथा ३. अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगधारी, दिगम्बरजैन नवोदित धर्मगुरु। ___पूज्यता या आदरसूचक अर्थ में भट्टारक शब्द की निरुक्ति इस प्रकार की गई
"भट्टान् पण्डितान् आरयति प्रेरयति स्याद्वादपरीक्षार्थमिति भट्टारकः।" (जिनसहस्रनामटीका ३/३२)।
अर्थात् जो मुनि भट्टों (पण्डितों) को स्याद्वाद के द्वारा वस्तुतत्त्व की परीक्षा के लिए प्रेरित करते हैं, वे भट्टारक कहलाते हैं।
पूज्यतासूचक उपाधि के रूप में 'भट्टारक' शब्द का प्रयोग वीरसेन स्वामी ने भगवान् महावीर, गणधर इन्द्रभूति, सुधर्मा स्वामी, जम्बू स्वामी, आचार्य गुणधर आदि के लिए किया है, यथा, महावीरभडारएण (महावीर-भट्टारकेन), इंदभूदिभडारओ (इन्द्रभूतिभट्टारकः), सुहम्मभडारओ (सुधर्मभट्टारकः), जंबूसामिभडारओ (जम्बूस्वामिभट्टारक:)७८ गुणहरभडारएण (गुणधरभट्टारकेन)।९ शक सं० ३८८ (ई० सन् ४६६) के मर्करा-ताम्रपत्र में दिगम्बर मुनियों के लिए भटार शब्द का प्रयोग हुआ है जो पूज्यता-सूचक है।८०
आचार्य इन्द्रनन्दी ने 'नीतिसार' के निम्नलिखित श्लोक में 'भट्टारक' शब्द को विद्वत्तादि-गुणसूचक-उपाधि का वाचक बतलाया है
सर्वशास्त्रकलाभिज्ञो नानागच्छाभिवर्धकः। महातपः प्रभाभावी भट्टारक इतीष्यते ॥ १८॥
७८. जयधवला / कसायपाहुड / भाग १ / गाथा १ / अनुच्छेद ६४ / पृष्ठ ७५-७७ । ७९. वही / अनुच्छेद १/ पृष्ठ ४। ८०. देखिए , दशम अध्याय / प्रथम प्रकरण / शीर्षक ११ ।
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