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________________ ५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८ / प्र० ४ अनुवाद - " सभी शास्त्रों और कलाओं के ज्ञाता, नाना गच्छों के अभिवर्धक, प्रभावशाली, महातपस्वी को भट्टारक कहते हैं । वस्तुतः भट्ट, भट्टार और भट्टारक ये लौकिक उपाधियाँ हैं, जो जैन - जैनेतर सभी भारतीय सम्प्रदायों में आदर - पूज्यता एवं विद्वत्ता - पाण्डित्य आदि गुणों को द्योतित करने लिए प्रयुक्त की गई हैं। विद्वत्तादि - गुणों के सूचनार्थ ये उपाधियाँ राजाओं या विद्वत्परिषदों के द्वारा प्रदान की जाती थीं। भट्ट नारायण, भट्ट लोल्लट, भट्ट अकलंक, भट्टार हरिश्चन्द्र भट्टारक वीरसेन स्वामी ऐसी ही (विद्वत्तादिगुणसूचक) उपाधियाँ हैं । महावीरभडारयेण (महावीर - भट्टारकेन) और परमभट्टारक - महाराजाधिराज अमोघवर्ष, इन उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि 'भट्टारक' या 'परमभट्टारक' उपाधि पूज्यतासूचनार्थ जैन-जैनेतर सभी सम्प्रदायों में प्रयुक्त हुई है। किन्तु, १२वीं शताब्दी ई० से 'भट्टारक' शब्द दिगम्बरजैनपरम्परा में ऐसे नवोदित धर्मगुरुओं के लिए प्रयुक्त होने लगा, जिनका लिंग (वेश) दिगम्बरजैन मुनियों जैसा न होकर लौकिक साधुओं जैसा था। वे जैनेतर साधुओं के समान लुंगी - चादर धारण करते थे और दिगम्बरजैन साधुओं के समान पिच्छी - कमण्डलु रखते थे इसलिए उनका लिंग (वेश) साधुओं के समान था, किन्तु वह दिगम्बरजैन साधु का लिंग नहीं था, इसलिए जिनोक्त नहीं था, अपितु अजिनोक्त ( जिनेन्द्र द्वारा अनुपदिष्ट) साधुलिंग था । चूँकि वे दिगम्बर जैनधर्म के अनुयायी थे और श्रावकवर्ग प्रायः शास्त्रों से अनभिज्ञ था, इसलिए इस अजिनोक्त - सवस्त्रसाधुलिंग को धारण करते हुए भी वे लोक के अन्य (जैनेतर) साधुओं जैसे दिखाई देने के कारण श्रावकों के द्वारा गुरु मान लिये गये, इस तरह वे उनके धर्मगुरु बन गये । वे महन्त - पुरोहितों के समान आचरण करते थे, गृहस्थों की कर्मकाण्डीय क्रियाएँ सम्पन्न कराते थे, बदले में गृहस्थों से दान-दक्षिणा और चढ़ावा लेते थे तथा मठों में नियतवास करते हुए वहाँ के मन्दिर - तीर्थादि का प्रबन्ध एवं सम्पत्ति की देखभाल करते थे, दान में प्राप्त भूमि में कृषि कराते थे । यह लिंग एवं कर्म उन्हें एक अनागमोक्त - स्वयंभू - जैन- संगठन के द्वारा स्थानविशेष के पट्ट पर अधिकारी के रूप में विधिपूर्वक अभिषिक्त करके सौंपा जाता था । दिगम्बरपरम्परा में नवोदित अजिनोक्त - सवस्त्रसाधुलिंगी मिथ्या धर्मगुरुओं की परम्परा ही भट्टारकपरम्परा दिगम्बरपरम्परा में उपर्युक्त नवोदित अजिनोक्त - सवस्त्रसाधुलिंगी मिथ्या धर्मगुरुओं की परम्परा भट्टारक- परम्परा या भट्टारकसम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुई । जिन पुरुषों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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