SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०८/प्र०४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /५५ के लिए पूज्यता एवं विद्वत्ता-सूचक भट्टारक-उपाधि का प्रयोग किया जाता है, उनका कोई सम्प्रदाय नहीं होता, क्योंकि पूज्यता एवं विद्वत्ता किसी भी सम्प्रदाय के व्यक्ति में हो सकती है। सम्प्रदाय या परम्परा उन्हीं लोगों की बनती है, जिनका समान लिंग (वेश), समान मत, समान कर्म एवं समान आचरणपद्धति होती है। पूज्यता और विद्वत्ता भिन्न लिंग, भिन्न मत, भिन्न कर्म एवं भिन्न आचरणपद्धतिवाले व्यक्ति में भी होती है। अतः पूज्यता एवं विद्वत्ता-सूचक भट्टारक-उपाधिधारी व्यक्तियों का सम्प्रदाय या परम्परा नहीं होती। इसलिए भट्टारक-परम्परा शब्द से उनके समुदाय का संकेत नहीं होता। अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी, दिगम्बरजैन, नवोदित मिथ्या धर्मगुरुओं में ही उपर्युक्त लिंगादि-गत समानताएँ होती हैं। अतः भट्टारकपरम्परा या भट्टारकसम्प्रदाय शब्द से उनका ही समुदाय संकेतित होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ में भी उनकी ही परम्परा को भट्टारक-परम्परा या भट्टारक-सम्प्रदाय नाम से अभिहित किया जा रहा है तथा यहाँ 'भट्टारक' शब्द का प्रयोग भी प्रायः इसी सम्प्रदाय के व्यक्ति का सूचक है। पासत्थादि मुनियों के वस्त्रधारण से १२वीं शती ई० में भट्टारकपरम्परा का उदय भावपाहुड, भगवती-आराधना और मूलाचार, इन प्राचीन ग्रन्थों में भ्रष्टचरित्रवाले पाँच प्रकार के जिनलिंगी मुनियों का उल्लेख है : पासत्थ (पार्श्वस्थ), कुसील (कुशील), संसत्त (संसक्त), ओसण्ण (अवसन्न) और जहाछंद या मिगचरित्त (यथाछन्द या मृगचरित्र)। इनके लक्षण इस प्रकार बतलाये गये हैं३.१. पासत्थ (पार्श्वस्थ) "पन्थानं पश्यन्नपि तत्समीपेऽन्येन कश्चिद् गच्छति, यथासौ मार्गपार्श्वस्थः, एवं निरतिचारसंयममार्ग जानन्नपि न तत्र वर्तते, किन्तु संयममार्गपार्श्वे तिष्ठति नैकान्तेनासंयतः, न च निरतिचारसंयमः सोऽभिधीयते पार्श्वस्थ इति। शय्याधरपिण्डमभिहितं नित्यं च पिण्डं भुङ्क्ते, पूर्वापरकालयोर्दातृ-संस्तवं करोति, उत्पादनैषणादोषदुष्टं वा भुङ्क्ते, नित्यमेकस्यां वसतौ वसति, एकस्मिन्नेव संस्तरे शेते, एकस्मिन्नेव क्षेत्रे वसति। गृहिणां गृहाभ्यन्तरे निषद्यां करोति, गृहस्थोपकरणैर्व्यवहरति, दुःप्रतिलेखमप्रतिलेखं वा गृह्णाति सूचिकर्तरि-नखच्छेद-सन्दंशनपट्टिका-क्षुर-कर्णशोधनाजिनग्राही, सीवन-प्रक्षालनावधूननरञ्जनादि-बहुपरिकर्म-व्यापृतश्च वा पार्श्वस्थः। क्षारचूर्णं सौवीरलवणसर्पिरित्यादिकमनागाढकारणेऽपि गृहीत्वा स्थापयन् पार्श्वस्थः। रात्रौ यथेष्टं शेते, संस्तरं च यथाकामं ८१. भावपाहुड/ गा.१४, मूलाचार / गा.५९५, भगवती-आराधना / गा.'किं पुण जे ओसण्णा' १९४३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy