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५६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० ४
बहुतरं करोति । उपकरणबकुशो देहबकुशः दिवसे वा शेते च यः पार्श्वस्थः। पादप्रक्षालनं प्रक्षणं वा यत्कारणमन्तरेण करोति, यश्च गणोपजीवी तृणपञ्चकसेवापरश्च पार्श्वस्थः । अयमत्र संक्षेपः- अयोग्यं सुखशीलतया यो निषेवते कारणमन्तरेण स सर्वथा पार्श्वस्थः । ८२
अनुवाद - " जैसे कोई मार्ग को देखते हुए भी उस मार्ग से न जाकर उसके समीपवर्ती अन्य मार्ग से जाता है, उसे मार्गपार्श्वस्थ कहते हैं, इसी प्रकार जो निरतिचार संयम का मार्ग जानते हुए भी उसमें प्रवृत्त नहीं होता, अपितु संयम के पार्श्ववर्ती मार्ग में चलता है, वह न तो एकान्त से असंयमी होता है, न निरतिचारसंयमी, उसे पार्श्वस्थ कहते हैं। शय्याधरपिण्ड का स्वरूप पहले ('आचेलक्कुद्देसिय' गा. ४२३ की टीका में) कहा गया है, उस भोजन को जो नित्य करता है, भोजन करने के पहले और पश्चात् दाता की स्तुति करता है अथवा उत्पादन और एषणादोष से दूषित भोजन करता है, नित्य एक ही वसतिका में रहता है, एक ही संस्तर पर सोता है, एक ही क्षेत्र में रहता है, गृहस्थों के घर के भीतर बैठता है, गृहस्थों के उपकरणों का उपयोग करता है, बिना प्रतिलेखना के वस्तु को ग्रहण करता है या दुष्टतापूर्वक प्रतिलेखना करता है, सुई, कैंची, नखछेदनी, छुरा, कान का मैल निकालने की सींक, चर्म आदि पास में रखता है और सीने, धोने, रँगने आदि के कामों में लगा रहता है, वह पार्श्वस्थ है । क्षारचूर्ण, सुर्मा, नमक, घी इत्यादि अकारण ग्रहण कर जो पास में रखता है, वह पार्श्वस्थ है। जो रात में यथेष्ट सोता है, संस्तर को इच्छानुसार लम्बा-चौड़ा करता है, वह उपकरणबकुश है। जो दिन में सोता है, वह देहवकुश है। ये भी पार्श्वस्थ हैं। जो बिना कारण पैर धोता है और शरीर का उबटन करता है, जो गणोपजीवी और तृणपञ्चकसेवी है, वह पार्श्वस्थ है । सारांश यह कि जो सुखशील होने के कारण अयोग्य का सेवन करता है वह सर्वथा पार्श्वस्थ ( पासत्थ ) है ।"
३.२. कुसील ( कुशील )
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" कुत्सितशीलः कुशीलः । यद्येवमवसन्नादीनां कुशीलत्वं प्राप्नोति । नैवं लोकप्रकटकुत्सितशीलः कुशील इति विवेकोऽत्र ग्राह्यः । स च कुशीलोऽनेकप्रकारः कश्चित्कौतुक कुशीलः औषधविलेपनविद्याप्रयोगेणैव, सौभाग्यकरणं राजद्वारिककौतुकमादर्शयति यः स कौतुककुशीलः । कश्चिद् भूतिकर्मकुशीलः । भूतिग्रहणमुपलक्षणं भूत्या, धूल्या, सिद्धार्थकैः, पुष्पैः फलैरुदकादिभिर्वा मन्त्रितै रक्षां वशीकरणं वा यः करोति स भूतिकुशीलः ।
कश्चित्प्रसेनिका-कुशीलः। अङ्गुष्ठप्रसेनिका, अक्षरप्रसेनी, प्रदीपप्रसेनी, शशिप्रसेनी, सूर्यप्रसेनी, स्वप्नप्रसेनीत्येवमादिभिर्जनं रञ्जयति यः सोऽभिधीयते प्रसेनिकाकुशील इति । कश्चिन्न- प्रसेनिकाकुशीलः विद्याभिर्मन्त्रैरौषधप्रयोगैर्वा असंयत-चिकित्सां करोति
८२. विजयोदयाटीका / भगवती आराधना / गा. 'गच्छंहि केइ पुरिसा' १९४४ ।
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