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________________ अ०८/प्र० ४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /५७ सोऽप्रसेनिकाकुशीलः। कश्चिन्निमित्त-कुशीलः, अष्टाङ्गनिमित्तं ज्ञात्वा यो लोकस्यादेशं करोति स निमित्तकुशीलः। आत्मनो जातिं कुलं वा प्रकाश्य यो भिक्षादिकमुत्पादयति स आजीवकुशीलः। केनचिदुपद्रुतः परं शरणं प्रविशति अनाथशाला वा प्रविश्य आत्मनश्चिकित्सां करोति स वा आजीवकुशीलः। विद्यायोगादिभिः परद्रव्यापहरणदम्भप्रदर्शनपरः कक्वकुशीलः। इन्द्रजालादिभिर्यो जनं विस्मापयति सोऽभिधीयते कुहनकुशील इति। वृक्षगुल्मादीनां पुष्पाणां फलानां च सम्भवमुपदर्शयति, गर्भस्थापनादिकं च करोति यः स सम्मूर्च्छनाकुशीलः। त्रसजानां कीटादीनां वृक्षादीनां पुष्पफलादीनां गर्भस्य परिशातनमाभिचारिकं च यः करोति शापं च प्रयच्छति स प्रपातनकुशीलः। --- आदिशब्दगृहीताः कुशीला उच्यन्ते-क्षेत्रं हिरण्यं चतुष्पदं च परिग्रहं ये गृह्णन्ति, हरितकन्दफलभोजिनः, कृतकारितानुमतपिण्डोपधि-वसतिसेवापराः स्त्रीकथारतयः मैथुनसेवापरायणा विवेकानवादि अधिकरणोद्यताश्च कुशीलाः। धृष्टः प्रमत्तः विकृतवेषश्च कुशीलः।८३ .. अनुवाद-"जिसका शील कुत्सित है, वह मुनि कुशील कहलाता है। प्रश्न-यदि ऐसा है, तो 'अवसन्न' आदि भी कुशील कहलायेंगे। उत्तर-नहीं, यहाँ कुशील उसे कहा गया है, जिसका कुत्सितशील लोक में प्रकट हो जाता है, यह भेद यहाँ ध्यान में रखना चाहिए। वह कुशील अनेक प्रकार का होता है। कोई कौतुककुशील होता है। जो सौभाग्य के कारणभूत राजद्वार में औषधिविलेपन की विद्या के प्रयोग द्वारा कौतुक (चमत्कार) दिखलाता है, वह कौतुककुशील है। कोई मुनि भूतिकर्मकुशील होता है। यहाँ 'भूति' शब्द उपलक्षण है। उससे यह अर्थ अभिप्रेत है कि जो मुनि भस्म, धूल, सरसों, पुष्प, फल अथवा जल आदि को अभिमंत्रित कर किसी की रक्षा या वशीकरण करता है, उसे भूतिकर्मकुशील कहते हैं। जो मुनि अंगुष्ठप्रसेनिका, अक्षरप्रसेनिका, प्रदीपप्रसेनिका शशिप्रसेनिका, सूर्यप्रसेनिका, स्वप्नप्रसेनिका आदि विद्याओं के द्वारा लोगों का मनोरंजन करता है, वह प्रसेनिकाकुशील है। जो मुनि, विद्या, मंत्र अथवा औषध के प्रयोग द्वारा असंयमी जनों की चिकित्सा करता है, वह अप्रसेनिकाकुशील कहलाता है। जो अष्टांग-निमित्तों को जानकर लोगों को इष्ट-अनिष्ट बतलाता है, उसका नाम निमित्तकुशील है। "जो अपनी जाति अथवा कुल बतलाकर भिक्षा आदि प्राप्त करता है, वह आजीवकुशील है। जो किसी के द्वारा सताये जाने पर दूसरे की शरण में जाता है अथवा अनाथशाला में जाकर अपनी चिकित्सा कराता है, वह भी आजीवकुशील होता है। जो विद्याप्रयोग आदि के द्वारा दूसरों का द्रव्य हरने और दम्भप्रदर्शन में तत्पर रहता है, वह कक्वकुशील होता है। जो इन्द्रजाल आदि से लोगों को विस्मित करता ८३. विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा. १९४४ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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