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५८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८ / प्र० ४
है, वह कुहनकुशील है । जो वृक्ष, झाड़ी, पुष्प, फल आदि को उत्पन्न करके बतलाता है तथा गर्भस्थापना आदि करता है, वह सम्मूर्च्छनाकुशील नाम से जाना जाता है। जो त्रसजाति के कीड़ों-वृक्षों, पुष्प फल आदि का तथा गर्भ का विनाश करता है, जादू-टोना करता है तथा शाप देता है, वह प्रपातनकुशील कहलाता है ।
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वर्णन करते हैं। जो कन्द- फल खाते हैं,
'अब गाथा में आये 'आदि' शब्द से गृहीत कुशीलों का क्षेत्र, सुवर्ण, चौपाये आदि परिग्रह को स्वीकार करते हैं, हरे कृत- कारित - अनुमोदना से भोजन, उपधि और वसतिका का सेवन करते हैं, स्त्रीकथा में लीन रहते हैं, मैथुनसेवन करते हैं, आस्रव के अधिकरणों में लगे रहते हैं, वे सब कुशील हैं। जो धृष्ट, प्रमत्त और विकृतवेश होता है, वह भी कुशील है । " ३.३. संसत्त (संसक्त)
" संसक्तो निरूप्यते - प्रियचारित्रे प्रियचरित्रः, अप्रियचारित्रे दृष्टे अप्रियचारित्रः, नटवदनेकरूपग्राही संसक्तः । पञ्चेन्द्रियेषु प्रसक्तः त्रिविधगौरवप्रतिबद्धः, स्त्रीविषये सङ्क्लेशसहितः, गृहस्थजनप्रियश्च संसक्तः ।" (वि.टी./ भ.आ./गा. १९४४)
अनुवाद - " अब संसक्त का स्वरूप कहा जा रहा है। चारित्रप्रेमियों में चारित्रप्रेमी हो जाना तथा चारित्र - अप्रेमियों में चारित्र - अप्रेमी बन जाना, इस तरह नट के समान अनेकरूप धारण करनेवाला मुनि संसक्त कहलाता है । जो पंचेन्द्रियविषयों में आसक्त होता है, ऋद्धिगारव सातगारव और रसगारव में लीन होता है, स्त्रियों में राग रखता है और गृहस्थों से प्रेम करता है, वह संसक्त है । "
३.४. ओसण्ण ( अवसन्न )
"यथा कर्दमे क्षुण्णः मार्गाद्धीनोऽवसन्न इत्युच्यते स द्रव्यतोऽवसन्नः । भावावसन्नः अशुद्धचरित्रः सीदति उपकरणे, वसतिसंस्तरप्रतिलेखने, स्वाध्याये, विहारभूमिशोधने, गोचारशुद्धौ, ईर्यासमित्यादिषु, स्वाध्यायकालावलोकने, स्वाध्यायविसर्गे, गोचारे च अनुद्यतः, आवश्यकेष्वलसः, जनातिरिक्तो वा जनाधिकं करोति कुर्वंश्च यथोक्तमावश्यकं वाक्कायाभ्यां करोति, न भावत एवम्भूतश्चारित्रेऽवसीदतीत्यवसन्नः । " (वि.टी. / भ.आ./ गा.१९४४) ।
अनुवाद - " जैसे कोई पुरुष कीचड़ में फँस जाता है या मार्ग में थक जाता है, तो उसे अवसन्न कहते हैं। वह द्रव्यरूप से अवसन्न होता है, वैसे ही जिसका चारित्र अशुद्ध होता है, वह भाव - अवसन्न कहलाता है। वह उपकरण, वसतिका, संस्तरशोधन, स्वाध्याय, विहारभूमिशोधन, गोचरीशुद्धि और ईर्यासमिति में, स्वाध्यायकाल का ध्यान रखने में, स्वाध्याय की समाप्ति तथा गोचरी में यत्नशील नहीं रहता । वह षडावश्यकों में भी आलस्य करता है । अथवा दूसरों की अपेक्षा इन क्रियाओं को
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