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अ०८/प्र०४ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /५९ करता तो अधिक है, किन्तु वचन और काय से करता है, भाव से नहीं। इस प्रकार चारित्र का पालन करते हुए खेदखिन्न होता है, इसलिए उसे अवसन्न कहते हैं।" ३.५. जहाछंद (यथाछन्द या मृगचरित्र)
__ "यथाछन्दो निरूप्यते। उत्सूत्रमनुपदिष्टं स्वेच्छाविकल्पितं यो निरूपयति सोऽभिधीयते यथाछन्द इति। तद्यथा वर्षे पतति जलधारणमसंयमः क्षुरकर्तरिकादिभिः केशापनयनप्रशंसनम् आत्मविराधनान्यथा भवतीति। भूमिशय्यातृणपुजे वसतामवस्थितानामाबाधेति। उद्देशिकादिके जनेऽदोषः ग्रामं सकलं पर्यटतो महती जीवनिकायविराधनेति। गृहामत्रेषु भोजनमदोष इति कथनं, पाणिपात्रिकस्य परिशातनदोषो भवतीति निरूपणा, सम्प्रति यथोक्तकारी न विद्यत इति च भाषणमेवमादिनिरूपणपराः स्वच्छन्दा इत्युच्यन्ते।" (वि.टी./ भ.आ. / गा.१९४४)।
अनुवाद-"अब यथाछन्द के स्वरूप का निरूपण करते हैं। जो उपदेश आगम में नहीं दिया गया है, उसे अपनी इच्छा से कल्पित करके निरूपित करनेवाला मुनि यथाछन्द कहलाता है। जैसे यह निरूपण करना कि वर्षा में जलधारण अर्थात् वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान लगाना असंयम है। छुरे, कैंची आदि से केश काटने की प्रशंसा करना और कहना कि केशलुञ्च करने से आत्मा की विराधना होती है। पृथ्वी पर सोने से तृणों में रहनेवाले जन्तुओं को बाधा होती है। उद्दिष्ट भोजन में कोई दोष नहीं है, क्योंकि भिक्षा के लिये पूरे ग्राम में भ्रमण करने से जीवनिकाय की महती विराधना होती है। घर के पात्रों में भोजन करने में कोई दोष नहीं है, ऐसा कहना और हाथ में भोजन करनेवाले को परिशातनदोष का भागी बतलाना। आजकल आगमानुसार आचरण करनेवाला कोई नहीं है, ऐसी बात करना। इस तरह की बातें करनेवाले मुनि स्वच्छन्द कहलाते हैं। (इन्हीं का नाम यथाछन्द या मृगचरित्र है)।"
आचार्य कुन्दकुन्द ने भावपाहुड में कहा है कि इन पासत्थ आदि पाँच प्रकार के मुनियों का अस्तित्व अनादिकाल से पाया जाता है
पासत्थभावणाओ अणाइकालं अणेयवाराओ।
भाऊण दुहं पत्तो कुभावणाभाव-बीएहिं॥ १४॥ अनुवाद-“हे मुनि! तूने अनादिकाल से अनेक बार पार्श्वस्थ आदि भावनाओं का चिन्तन कर कुभावनारूप बीजों के द्वारा दुःख प्राप्त किया है। कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार में ऐसे मुनियों को लौकिक मुनि की भी संज्ञा दी है
णिग्गंथो पव्वइदो वट्टदि जदि एहिगेहिं कम्मेहिं। सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमतवसंजुदो चावि॥ २/६९॥
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