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६० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०४ अनुवाद-"निर्ग्रन्थदीक्षा लेकर भी यदि मुनि ऐहिक (लौकिक) कार्यों में प्रवृत्त होता है, तो संयम-तप युक्त होते हुए भी उसे लौकिक (मुनि) कहा गया है।"
ज्योतिष, मन्त्र-तन्त्र, वैद्यक आदि लौकिक जीवन के उपाय ऐहिककर्म कहलाते हैं
"ऐहिकैः कर्मभिः भेदाभेदरत्नत्रयभावनानाशकैः ख्यातिपूजालाभनिमित्तैयॊतिषमन्त्रवादि-वैदिकादिभिरैहिक-जीवनोपायकर्मभिः।" (ता.वृ/ प्र.सा.३ / ६९)।
इस प्रकार के पासत्थ-कुसीलादि या लौकिक मुनि कुन्दकुन्द के समय में भी थे, यह लिंगपाहुड की निम्नलिखित गाथा से ज्ञात होता है
जो जोडदि विवाहं किसिकम्मवणिज्जजीवघादं च।
वच्चदि णरयं पाओ करमाणो लिंगिरूवेण॥ ९॥ अनुवाद-"जो जिनलिंग धारण कर दूसरों के विवाहसम्बन्ध जोड़ता है तथा कृषि एवं वाणिज्य करके जीवघात करता है, वह पापी नरक में जाता है।"
इस प्रकार मन्दिरों और मठों में नियतवास करनेवाले तथा कृषि-वाणिज्य, मंत्रतंत्र, ज्योतिष, वैद्यक आदि के द्वारा जीविकोपार्जन करनेवाले दिगम्बरमुनियों की परम्परा बहुत पहले से चली आ रही थी। उनके भ्रष्टचरित्र के कारण आगम में उन्हें पार्श्वस्थ, कुशील, लौकिकमुनि आदि नामों से वर्णित किया गया है। ३.६. सम्प्रदायविशेष के व्यक्ति के अर्थ में 'भट्टारक' शब्द के प्रचलन की कथा
ईसा की बारहवीं सदी में उक्त पासत्थादि भ्रष्ट मुनियों में से अधिकांश ने जिनलिंग का परित्याग कर नियमितरूप से वस्त्र धारण करना शुरू कर दिया, गद्दों पर सोने लगे और कम्बल ओढ़ने लगे। इसके दो कारण थे। पहला काम को न जीत पाने के कारण कदाचित् उत्पन्न हुयी शारीरिक विकृति को छिपाना और शीतादिपरीषहों की पीड़ा से बचना। शीतादि की पीड़ा से बचने के लिए तृणमय-प्रावरण का प्रयोग तो मन्दिर मठवासी पासत्थादि मुनियों एवं मुनिपद के अयोग्य अन्य मुनियों के द्वारा पहले ही किया जाने लगा था। इसकी सूचना परमात्मप्रकाश के व्याख्याकार श्री ब्रह्मदेव (११वीं शती ई०) के निम्नलिखित कथन से मिलती है
"विशिष्टसंहननादिशक्त्यभावे सति यद्यपि तपः पर्यायशरीरसहकारिभूतमन्नपानसंयम-शौचज्ञानोपकरणतृणमयप्रावरणादिकं किमपि गृह्णाति तथापि ममत्वं न करोति।" (प.प्र./ अधिकार २ / दोहा ८९)।
अनुवाद-विशिष्ट संहननादिशक्ति के अभाव में यद्यपि तप के साधनभूत शरीर
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