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अ०८/प्र० ४
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /६१ की स्थिति के लिए मुनि अन्न, पान, संयम, शौच और ज्ञान के उपकरण (पिच्छी, कमण्डलु एवं शास्त्र) तथा तृणमय प्रावरण (तिनकों से बना हुआ चादर) आदि ग्रहण करता है, तथापि उनमें ममत्व नहीं करता।"
ईसा की १२वीं शताब्दी में इन देहसुख-लोलुप पासत्थादि भ्रष्ट मुनियों ने निःसंकोच होकर वस्त्र पहनना-ओढ़ना शुरू कर दिया।
ऐसा करने का दूसरा कारण यह था कि देश के मुस्लिमशासित राज्यों में दिगम्बर जैन मुनियों पर मुसलमानों के द्वारा उपसर्ग किया जाता था। इस कारण से भी मन्दिरमठवासी मुनियों ने पहले बाहर निकलते समय शरीर को चटाई, टाट आदि लपेटकर ढंगना आरंभ किया, पश्चात् ईसा की १२वीं सदी में वे जिनलिंग का सर्वथा परित्याग कर नियमितरूप से वस्त्र पहनने लगे। (देखिये, आगे 'दंसणपाहुड' की २४वीं गाथा की श्रुतसागरटीका)।
___ मन्दिर-मठवासी पासत्थादि मुनियों के इस वेशपरिवर्तन में भी एक विशेषता थी। उन्होंने जिनलिंग का परित्याग तो कर दिया, किन्तु पिच्छी-कमण्डलु का त्याग नहीं किया, पिच्छी-कमण्डलु रखते हुए लुंगी-चादर धारण करने लगे। उनका यह लिंग दिगम्बरमुनि, एलक, क्षुल्लक और सामान्य श्रावकों से भिन्न था। इस लिंग में
वे जैनेतर साधुओं जैसे दिखते थे। इसलिए यह एक अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग था। किन्तु जिनागम के अनुसार यह गृहस्थलिंग ही था। इस सर्वांगवस्त्रमय गृहस्थलिंग को धारण करके भी वे मठ-मन्दिरों में पूर्ववत् निवास करते हुये, वे ही गृहस्थकर्म करते रहे, जो पासत्थादि मुनि-अवस्था में करते थे। यह परिवर्तन कथंचित् अच्छा था और कथंचित् बुरा। इसमें अच्छी बात यह हुई कि वे उन पापों से बच गये, जो जिनलिंग में रहते हुए गृहस्थकर्म करने से हो रहे थे और जिनलिंग भी कलंकित होने से बच गया। आदिपुराण (१७ / २१२) में कहा गया है कि भगवान् ऋषभदेव के साथ चार हजार स्वामिभक्त राजाओं ने भी मुनिदीक्षा ग्रहण की थी, किन्तु वे उसके योग्य नहीं थे, इसलिए परीषहों से घबराकर स्वयं ही वृक्षों के फल तोड़कर खाने लगे और तालाबों का जल पीने लगे। तब वनदेवियों ने उनकी निन्दा करते हुए कहा-"अरे मो! यह जिनलिंग अरहन्तों और चक्रवर्तियों के द्वारा अवलम्बनीय होने से अत्यन्त पूज्य है। इसमें रहते हुए तुम इसके विरुद्ध आचरण कर इसे निन्दा का पात्र मत बनाओ।" तब उन मुनियों ने जिनलिंग का परित्याग कर दिया और अन्य साधुओं का वश धारण कर अपनी क्षुधा-तृषा शान्त करने लगे। (आदिपराण/१८/५१-५७) इस प्रकार वे उन घोर पापों से बच गये, जो जिनलिंग में रहते हुए उसके विरुद्ध आचरण करने से संभव थे। यद्यपि उनका दूसरा मार्ग भी मिथ्यात्वमय होने से पापात्रव
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