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________________ ६२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८ / प्र० ४ का हेतु था, पर उतना अधिक नहीं, जितना पहलेवाला था, क्योंकि आचार्यों ने कहा है अन्यलिङ्गकृतं पापं जिनलिङ्गेन मुच्यते । जिनलिङ्गकृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ॥ 44 अनुवाद- 'अन्य लिङ्ग में रहकर किया गया पाप जिनलिङ्ग धारण करने से छूट जाता है, किन्तु जिनलिङ्ग में रहकर किया गया पाप वज्रलेप हो जाता है, अर्थात् किसी भी अन्य लिङ्ग से नहीं छूटता । " (मो.पा./गा. ७८ / श्रुतसागरटीका में उद्धृत) । यही अच्छी घटना उन पासत्थादि-मुनियों के साथ घटित हुई थी, जिन्होंने योग्यता के अभाव में जिनलिंग का परित्याग कर गृहस्थलिंग धारण कर लिया था । किन्तु इस अच्छे कार्य के साथ जो बुरा कार्य उन्होंने किया, वह यह था कि गृहस्थावस्था स्वीकार करके भी पिच्छी - कमण्डलु का परित्याग नहीं किया और ऐसे वस्त्र धारण किये जिससे वे जैनेतर साधु जैसे लगते थे। और इस साधु-सद्दश छवि के द्वारा उन्होंने धर्मगुरु का पद हथिया लिया । इस प्रकार दिगम्बरपरम्परा में उन्होंने साधु का एक आगमविरुद्ध नया प्रकार प्रक्षिप्त कर दिया और उसे साधुपद के रूप में श्रावकों से मान्यता दिलाने के लिए अपने लिए स्वामी, जगद्गुरु, कर्मयोगी, पण्डिताचार्य जैसी उपाधियों का प्रयोग प्रचलित किया । जिनलिंग धारण करने की सामर्थ्य न होने पर उसे धारण न करना उचित है और धारण करने के बाद पता चले कि उसका पालन करना किसी भी प्रकार संभव नहीं है, तो उसे छोड़ देना उचित है, किन्तु यह याद रखना चाहिए कि मोक्ष जिनलिंग से ही संभव है, अतः उसकी योग्यता विकसित करने का प्रयत्न करते रहना चाहिए तथा उसका पालन संभव बनाने के लिए योग्य देश की खोज और अनुकूल समय की प्रतीक्षा करनी चाहिए। साथ ही परिस्थितियों को अपनी लक्ष्यसिद्धि के अनुकूल बनाने का पौरुष करते रहना चाहिए । किन्तु यह उचित नहीं है कि जिनलिंग का परित्याग कर एक नये सवस्त्र लिंग को साधुलिंगवत् मान्यता दिलाकर अपने को दिगम्बरजैन धर्मगुरु के पद पर बैठा दिया जाय और भोले श्रावकों को देवी-देवताओं एवं निरर्थक कर्मकाण्ड के मायाजाल में फँसाकर वास्तविक धर्म से वंचित किया जाय और उनकी श्रद्धा तथा धन का शोषण किया जाय। यह मायाचार है और यह भी पाप का कारण है। पासत्थादि मुनियों के द्वारा जिनलिंग का परित्याग जहाँ एक अच्छा कार्य था, वहीं एक जिनोपदेशविरुद्ध मिथ्या सवस्त्र साधुलिंग का जैनपरम्परा में प्रक्षेप बुरा कार्य था। फिर भी इस लिंग से किया गया पाप वैसा वज्रलेपात्मक नहीं होता, जैसा जिनलिंग से किया गया पाप होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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