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अ०८/प्र०४
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त /६३ जिन पासत्थादि मुनियों ने जिनलिंग का परित्यागकर अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंग ग्रहण किया था, वे अब जिनलिंग के अभाव में मुनि तो कहला नहीं सकते थे, एलक-क्षुल्लक के लिंगों से रहित होने के कारण इन नामों से भी उन्हें सम्बोधित किया जाना संभव नहीं था, इसलिए उन्होंने अपने नवोदित भ्रष्ट सम्प्रदाय को भट्टारकसम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध किया और अपने सम्बोधन के लिए 'भट्टारक' संज्ञा प्रचलित कर दी। यह शब्द परम्परा से उन्हें सुलभ भी था। 'भट्टारक' शब्द का प्रयोग दिगम्बर मुनियों के लिए आदरसूचनार्थ प्रयुक्त होता आ रहा था। पासत्थादि दिगम्बर मुनियों के अजिनोक्त सवस्त्र साधुलिंग धारण कर लेने के बाद भी भोले श्रावक उन्हें आदरसूचनार्थ 'भट्टारक जी' कहकर पुकारते रहे। फलस्वरूप यह शब्द उनके सम्बोधन के लिए रूढ़ हो गया। इस प्रकार जो शब्द पहले श्रद्धास्पदता और पूज्यता का अभिव्यंजक था, वह अब मुनिपद से पतित, अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगधारी, गृहस्थदशापन्न, नवोदित, अवास्तविक धर्मगुरु का वाचक बन गया। ३.७. 'भट्टारक' शब्द का अर्थापकर्ष ईसा की १२वीं सदी में
__ भट्टारक शब्द के अर्थापकर्ष (पूज्यतार्थ से हीनतार्थ द्योतक बन जाने) की यह तकदीर ईसा की १२वीं सदी में लिखी गयी। अजिनोक्त-सवस्त्रसाधुलिंगी धर्मगुरु के अर्थ में भट्टारक शब्द का प्राचीनतम उल्लेख बुन्देलखण्ड के दिगम्बर जैन तीर्थ अहार (म.प्र.) में वि० संवत् १२१३ के श्री सुमतिनाथ-प्रतिमा-लेख में मिलता है, जो इस प्रकार है
"संवत् १२१३ भट्टारक स्त्री माणिक्यदेव गुण्यदेवौ प्रणमति नित्यम्।"
अनुवाद-"विक्रमसंवत् १२१३ (ई० सन् ११५६) में भट्टारक श्री (स्री) माणिक्यदेव और गुण्यदेव (प्रतिमा-प्रतिष्ठा कराकर) नित्य प्रणाम करते हैं।"
'प्रणमति' के स्थान में 'प्रणमतः' होना चाहिए था। किन्तु प्रायः सभी प्रतिमालेख टूटी-फूटी संस्कृत में लिखे गये हैं।
यह लेख डॉ० कस्तूरचन्द्र जैन 'सुमन' के 'भारतीय दिगम्बर जैन अभिलेख और तीर्थपरिचय मध्यप्रदेश : १३वीं शती तक' ग्रन्थ (लेख क्र. १४६ / पृ.१६७) से उद्धृत है।
इसके बाद अहार (म.प्र.) के ही वि० संवत् १२१६ के श्री शान्तिनाथ-प्रतिमालेख में 'भट्टारक' शब्द प्रयुक्त हुआ है
"सम्वत् १२१६ माघ सुदि १३ सु (शु) क्र दिने श्रीमत कुटकान्वये पंडित श्री मंगलदेव तस्य सिस्य भट्टारक पद्मदेव---वस। तस्य---।"
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