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अ०८/ प्र० ३
कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ३७ श्रवणबेलगोल के ही १४३३ ई० (शक सं० १३५५) के शिलालेख में भी उक्त उल्लेख मिलता है
तदीयवंशाकरतः प्रसिद्धादभूददोषा यतिरत्नमाला। बभौ यदन्तमणिवन्मुनीन्द्रस्स कुण्डकुन्दोदितचण्डदण्डः॥ १०॥ अभूदमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन॥ ११॥
नन्दिसङ्के सदेशीयगणे गच्छे च पुस्तके।
इंगुलेशबलिर्जीयान्मङ्गलीकृत-भूतलः॥ २२॥३९ शिलालेखों के अध्येता डॉ. गुलाबचन्द्र जी चौधरी लिखते हैं कि "लेख नं० ५९६ (१०५, १४ वीं शताब्दी) और ६२५ (१०८, १५वीं शताब्दी) में नन्दिगण को नन्दिसंघ कहा गया है और उसे मूलसंघ के अर्थ में प्रयुक्त किया है। इन दोनों लेखों में सेन, नन्दि, देव और सिंह संघों का एक काल्पनिक इतिहास दिया गया है। --- ये दोनों लेख एक सुंदर काव्य कहे जा सकते हैं।"४०
इस प्रकार मूलसंघ के साधुवर्ग-विशेष का नन्दिगण या नन्दिसंघ नामकरण १२वीं शताब्दी ई० की घटना है उससे पूर्व की नहीं।
सन् ४६६ ई० (शक सं० ३८८) के मर्करा ताम्रपत्रों में कोण्डकुन्दान्वय के साथ केवल देशीयगण का सम्बन्ध दर्शाया गया है
"देसिगगणं कोण्डकुन्दान्वय-गुणचन्द्रभटारशिष्यस्य।"४१ गण-गच्छादि से रहित केवल 'कोण्डकुन्दान्वय' का निर्देश ७९७ ई० (शक सं० ७१९) तथा ८०२ ई० (शक वर्ष ७२४) के 'मण्णे' के अभिलेखों में मिलता है। यथा
"आसीद (त् ) तोरणाचार्यः कोण्डकुन्दान्वयोद्भवः।"४२ "कोण्डकुन्दान्वयोदारो गणोऽभूत् भुवनस्तुतः। ४३
३९. वही / भाग १/ ले. क्र.१०८ (२५८)। ४०. वही / भाग३ / प्रस्तावना / पृ.५८। ४१. जैन-शिलालेख-संग्रह / माणिकचन्द्र / भाग २ / ले. क्र.९५, पृ.६३ । ४२. वही/ भा.२/ ले. क्र.१२२ / पृ.१२२ । ४३. वही/ भा.२/ ले. क्र. १२३ / पृ.१२९ ।
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