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३६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०८/प्र०३ ___ इसके बाद 'नन्दिगण' का उल्लेख ई० सन् ११२३ से लेकर ११७७ ई० तक जैन शिलालेख संग्रह (मा. च.) भाग १ के लेख क्र. ४३ (११७), ५० (१४०), ४० (६४), ४२ (६६) में मिलता है। किन्तु नन्दिसंघ शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख १२वीं शताब्दी के एक लेख में हुआ है। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री लिखते हैं-"बूढ़ी चंदेरी (गुना) स्थित १२वीं शताब्दी का एक ऐसा लेख भी हमारे संग्रह में है, जिसमें मात्र कुन्दकुन्दान्वय-नन्दिसंघ का उल्लेख दृष्टिगोचर होता है। लेख का वह अंश इस प्रकार है"
"श्री कुन्दकुन्दान्वयनन्दिसंघे जातो मुनिः श्री शुभकीर्तिसूरिः।"
(जिनमूर्ति-प्रशस्ति-लेख / प्रस्तावना / पृ.२०)
तत्पश्चात् 'नन्दिसंघ' शब्द मूलसंघ एवं कुन्दकुन्दान्वय के साथ विजयनगर के १३८६ ई० के दीपस्तम्भ लेख पर आया है। यथा- .
श्रीमूलसङ्ग्रेञ्जनि नन्दिसङ्घस्तस्मिन् बलात्कारगणोऽतिरम्यः। तत्रापि सारस्वतनाम्नि गच्छे स्वच्छाशयोऽभूदिह पद्मनन्दी॥ ३॥
आचार्यकुण्डकुन्दाख्यो वक्रग्रीवो महामतिः। एलाचार्यों गृध्रपिच्छ इति तन्नाम पञ्चधा॥ ४॥ केचित्तदन्वये चारुमुनयः खनयो गिराम्।।
जलधाविव रत्नानि बभूवुर्दिव्यतेजसः॥ ५॥३७ इसके बाद १३९८ ई० (शक सं० १३२०) के एक श्रवणबेलगोल-स्तम्भलेख पर पाया जाता है। यथा
अर्हद्वलिस्सङ्घचतुर्विधं स श्रीकोण्डकुन्दान्वयमूलसङ्ख। कालस्वभावादिह जायमान-द्वेषेतराल्पीकरणाय चक्रे॥२६॥ सिताम्बरादौ विपरीतरूपे खिले विसङ्गे वितनोतु भेदं। तत्सेननन्दि-त्रिदिवेश-सिंह-सङ्केषु यस्तं मनुते कुदृक्सः॥२७॥
सङ्केषु तत्र गणगच्छ-वलि-त्रयेण लोकस्य चक्षुषि भिदाजुषि नन्दिसङ्के। देशीगणे धृतगुणेऽन्वितपुस्तकाच्छगच्छेऽङ्गुलेश्वरवलिर्जयति प्रभूता॥ २८॥३८
३७. वही / भाग ३ / ले.क्र.५८५।। ३८. वही / भाग १ / ले.क्र.१०५ (२५४)।
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