SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०८/ प्र०३ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ३५ वृत्ततस्समस्ततोऽविरुद्ध-धर्म-सेविनां मध्यतः प्रसिद्ध एष नन्दिसङ्घ इत्यभूत्॥ २१॥३१ ।। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार लिखते हैं-"अकलंक से पहले के साहित्य में इन चार प्रकार के संघों का कोई उल्लेख भी अभी तक देखने में नहीं आया है, जिससे इस कथन के सत्य होने की बहुत कुछ संभावना पायी जाती है।"३२ न केवल साहित्य में, अपितु भट्ट अकलंकदेव के अस्तित्वकाल से पूर्व के शिलालेखों में भी इन संघों का उल्लेख अनुपलब्ध है। यद्यपि द्रमिळगण या द्रविळसंघ के अन्तर्गत नन्दिसंघ के अस्तित्व का प्राचीनतम उल्लेख १०६० ई० के आसपास के सोमवार-शिलालेख में३३ तथा यापनीय-नन्दिसंघ की सर्वप्रथम चर्चा ७७६ ई० के देवरहल्लि-अभिलेख२४ में तथा उसके बाद ८१२ ई० के कड़ब-अभिलेख में मिलती है,३५ किन्तु मूलसंघ या कुन्दकुन्दान्वय में नन्दिगण का सबसे पुराना उल्लेख १११५ ई० (शक सं० १०३७) के श्रवणबेलगोल के स्तम्भलेख पर उपलब्ध होता है। यथा श्रीमन्मुनीन्द्रोत्तमरलवर्गाः श्रीगौतममाद्याः प्रभविष्णवस्ते। तत्राम्बुधौ सप्तमहर्द्धियुक्तास्तत्सन्ततौ नन्दिगणे बभूव॥ ३॥ श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः। द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्र-सञ्जात-सुचारणद्धिः॥ ४॥ श्रीमूलसङ्घ कृत-पुस्तकगच्छ-देशीयोद्यद्गणाधिपसुतार्किकचक्रवर्ती सैद्धान्तिकेश्वरशिखामणि मेघचन्द्र... स्त्रैविद्यदेव इति सद्विबुधाः स्तुवन्ति॥ २९॥२६ ३१. जैन-शिलालेख-संग्रह / माणिकचन्द्र / भाग १/ ले.क्र.१०८ (२५८)। ३२. 'स्वामी समन्तभद्र'/ पृ.१८०-१८१।। ३३. "गुणसेनपण्डितविळगणम् वरनन्दिसंघमन्वयमरुङ्ग(लम्)।" जैन-शिलालेख-संग्रह। माणिकचन्द्र । भा.२ / ले.क्र.१९२। ३४. क-"श्रीमूल-मूलगणाभिनन्दितनन्दिसङ्घान्वये एरेगित्तूरनाम्नि गणे पुलिकल्-गच्छे --- चन्द्रनन्दीनाम गुरुरासीत्।" जैन-शिलालेख-संग्रह । माणिकचन्द्र/भा.२/ ले.क्र.१२१ । ख-यापनीय-नन्दिसंघ कई गणों में विभक्त था। उनमें कनकोपल-सम्भूत-वृक्षमूलगण (जै.शि.सं./मा.च/ भा.२/ लेख क्र. १०६), श्रीमूलमूलगण तथा पुन्नागवृक्षमूलगण प्रमुख थे। (गुलाबचन्द्र चौधरी : प्रस्तावना / पृ.२७ / जैन-शिलालेख-संग्रह / माणिकचन्द्र / भा.३)। ३५. "श्रीयापनीय-नन्दिसंघ-पुन्नागवृक्ष-मूलगणे" जैन-शिलालेख-संग्रह / भाग २/ले.क्र.१२४। ३६. जैन-शिलालेख-संग्रह/ माणिकचन्द्र / भा.१ / ले.क्र.४७ (१२७)। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy