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________________ अ०८/ प्र०३ कुन्दकुन्द के प्रथमतः भट्टारक होने की कथा मनगढन्त / ३३ पद्मनन्दी गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी: पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती। उजयन्तगिरौ गच्छः स्वच्छः सारस्वतोऽभवत् अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्रीपद्मनन्दिने॥२८ अनुवाद-"जिन पद्मनन्दी गुरु ने ऊर्जयन्त पर्वत पर पाषाणनिर्मित सरस्वती को बोलने के लिए बाध्य कर दिया, वे बलात्कारगण के अग्रणी (प्रधान) बन गये। तब से स्वच्छ सारस्वतगच्छ का प्रचलन हुआ। इसलिए उन पद्मनन्दी मुनीन्द्र को मैं नमस्कार करता हूँ।" उपर्युक्त उल्लेख के आधार पर प्रो० जोहरापुरकर ने भी लिखा है कि चौदहवीं सदी से ही बलात्कारगण या बलगारगण के साथ सरस्वतीगच्छ और उसके पर्यायवाची भारती, वागेश्वरी, शारदा आदि नाम जुड़े हैं।२९ प्रोफेसर सा० के अनुसार बलात्कारगण का भी सबसे प्राचीन उल्लेख विक्रमसंवत् १०७० में आचार्य श्रीचन्द्र ने 'पुराणसार' में किया है।२९ किन्तु ई० सन् १०४८ के एक शिलालेख में बलगारगण का उल्लेख मिलता है, जो बलात्कारगण का पूर्वरूप है३° और श्री चन्द्रप्रभ छोटा मन्दिर सिंरोज (म.प्र.) में विक्रम संवत् १००७ (९५० ई०) के प्रतिमालेख में मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण, इन तीन का उल्लेख है। यथा "वि० संवत् १००७ मासोत्तममासे फाल्गुणमासे शुक्लपक्षे तिथौ चतुर्थ्यां बुधवासरे श्रीमूलसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण ठाकुरसीदास प्रतिष्ठितं।" यह लेख सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री ने श्री कमलकुमार जैन के जिनमूर्ति-प्रशस्तिलेख ग्रन्थ की प्रस्तावना में पृष्ठ २० पर उद्धृत किया है। श्रीदिगम्बर जैन बड़ा मन्दिर छतरपुर (म.प्र.) में एक यन्त्र पर संवत् १२१९ का निम्नलिखित लेख उत्कीर्ण है, जिसमें मूलसंघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ, और कुन्दकुन्दाचार्य-आम्नाय एक साथ उल्लिखित हैं "संवत् १२१९ जेष्ठ सुदी १० सोमे श्री मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्याम्नाये खंडेलवालवंसे विलालागोत्रे सिंघई मल्लजी प्रतिष्ठित वृन्दावती कवने दयागमस्योपदेशणाम्।" (कमलकुमार जैन : जिनमूर्ति-प्रशस्तिलेख / पृ.६८) २८. यह वस्तुतः प्रथम शुभचन्द्रकृत गुर्वावली का ६३ वाँ श्लोक है। देखिए , इसी अध्याय के अन्त में 'विस्तृत सन्दर्भ'। २९. भट्टारकसम्प्रदाय / पृष्ठ ४४। ३०. "बलगारगणद मेघनन्दिभट्टारक।" जैन-शिलालेख-संग्रह / मा.च./ भाग २/ ले.क्र.१८१ । Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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