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________________ ३२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०८/ प्र०३ की स्थापना हुई। वह आचार्य (सेवक) से भट्टारक हो गया। उसे पद्मनन्दी नाम दिया गया।२४ इस प्रकार उक्त पट्टावलियों में न तो 'पट्टाधीश' शब्द का प्रयोग है, न 'भट्टारक' शब्द का। अतः इन हेत्वाभासों के आधार पर आचार्य हस्तीमल जी का 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' की पट्टावली को भट्टारक-पट्टावली मानना मिथ्या सिद्ध हो जाता है। २. उक्त पट्टावली को नन्दिसंघ की पट्टावली भी नहीं कहा गया है। प्रो० हानले के अनुसार उसमें 'सरस्वती गच्छ की पट्टावली' शीर्षक दिया गया है२५ और 'सरस्वतीगच्छ' नाम का प्रचलन 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रकाशित 'डी' पट्टावली के अनुसार उपर्युक्त भट्टारक पद्मनन्दी के ही समय में हुआ था। उन्होंने ऊर्जयन्त (गिरनार) पर्वत पर सरस्वती की पाषाणप्रतिमा बनाई थी और उसे मंत्र के बल पर बोलने के लिए बाध्य कर दिया था। (उससे यह कहलवा दिया था कि दिगम्बरमत ही प्राचीन है, श्वेताम्बरमत नहीं)२६ तब से सारस्वतगच्छ या सरस्वतीगच्छ का प्रचलन हुआ। इसके समर्थन में प्रो. हार्नले ने पीटर्सन को उपलब्ध पट्टावली से निम्नलिखित श्लोक उद्धृत किया है २४. "संवत् १३७५ दिन सँ एक भट्टार्क प्रभाचन्द्र जी के आचार्य छो। सो गुजरात मे श्री भट्टार्क जी तो न छा अरु वै आचार्य ही छा। सो महाजन एक प्रतिष्ठा को उद्यम कीयो। सो वै तो न आय पहुंच्या। जदि आचार्य ने सूरिमन्त्र दिवाय अर भट्टार्क पदवी गुजरात की दीन्ही, प्रतिष्ठा करिवा पार्छ । तठा तूं गुजरात मे पट्ट थारो॥ आचार्य V भट्टार्क हुवो। नाम पद्मनन्द जी दीयो॥" Pattavali D, The Indian Antiquary, Vol. XXI, p.78. यहाँ 'आचार्य' शब्द सेवक के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। देखिए पादटिप्पणी २६ । २५. Two Pattavalis of the sarasvati Gachchha of the Digambara Jains. (The Indian Antiquary, vol. XX, p.341). Three Further Pattāvalīs of the Digambaras. (The Indian Antiquary, vol. XXI, p.57.) २६. "प्रभाचन्द्र जी के आचार्य गुजरात मैं छो। सो वठै एकै श्रावक प्रतिष्ठा नैं प्रभाचन्द्र जी नैं बलायाँ। सो वै नाया। तदि आचार्य नैं सुरमन्त्र (read सूरि) दे भट्टारक करि प्रतिष्ठा कराई। तदि भट्टारक पद्मनन्दि जी हुवा। त्याँ पाषाण की सरस्वती मुळे बुलाई।" Pattavali D, The Indian Antiquary, Vol. XXI, p.78. विशेष—यहाँ आचार्य का अर्थ मुनिसंघ का आचार्य नहीं है, अपितु भट्टारक के परिकर (सेवक समूह) से सम्बद्ध कोई ब्रह्मचारी या पण्डित है। इसीलिए 'डी' पट्टावली के मूलपाठ में 'भट्टारक प्रभाचन्द्र का एक आचार्य था ऐसा कहा गया है। प्रो. हार्नले ने भी यही अर्थ किया है, यथा-"In Samvat 1375 there was a certain Acharya belonging to (the suite of) the Bhattāraka Prabhāchandra.” The Indian Antiquary, Vol. XXI, 78. शब्दकोश में suite का अर्थ परिकर या परिजन दिया गया है। २७. The Indian Antiquary, Vol. XXI, p.78. Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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