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तृतीय प्रकरण कुन्दकुन्द को भट्टारक असिद्ध करनेवाले
पट्टावलीगत तथ्य जैसा कि पूर्व में कहा गया है, आचार्य हस्तीमल जी ने पूर्वोद्धृत तालिकाबद्ध पट्टावली के आधार पर जो यह निष्कर्ष निकाला है कि कुन्दकुन्द भट्टारकपरम्परा के थे, वह युक्ति और प्रमाण के विरुद्ध है। पट्टावली में निर्दिष्ट तथ्य ही इसके साक्षी हैं। उनका प्ररूपण नीचे किया जा रहा है।
कुन्दकुन्द 'नन्दी' आदि संघों की उत्पत्ति से पूर्ववर्ती १. आचार्य हस्तीमल जी ने पूर्वोद्धृत वक्तव्य में कहा है कि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी की पट्टावली में सभी आचार्यों के लिए सात बार 'पट्टाधीश' विशेषण और दो बार 'भट्टारक' विशेषण का प्रयोग किया गया है। इससे सिद्ध है कि वह भट्टारक-परम्परा की मूल पट्टावली है।
प्रतीत होता है कि आचार्य जी ने 'दि इण्डियन ऐण्टिक्वेरी' में प्रो. हार्नले द्वारा प्रकाशित पट्टावलियों के मूल पाठ का अवलोकन नहीं किया। उनमें कहीं भी 'पट्टाधीश' शब्द का प्रयोग नहीं है। उनमें तो 'पट्ट', 'पट्टस्थ' और 'आचार्य' शब्दों का प्रयोग है। जैसे "बहुरि ता के पीछे पिच्यासीमाँ पट्ट, संवत् १४५० चौदह सौ पच्चास का माघ शुक्ल पञ्चमी ५ . शुभचन्द्र भया।"२१
अनुवाद-"और उनके पश्चात् पचासीवें (८५ वें) पट्ट संवत् १४५० की माघ शुक्ल पञ्चमी को शुभचन्द्र हुए।"
"वहुरि महाकीर्त्ति आदि लेर महीचन्द्रान्त ताँई छव्वीस पट्ट मालवा विषै ।"२१ अनुवाद-और महाकीर्ति से लेकर महीचन्द्र तक छब्बीस पट्ट मालवा में हुए
हैं।
"विक्रम राजा . राज्यपदस्थ के दिन नै संवत् केवल ४ के चैत्र शुक्ल चतुर्दशी दिने श्रीभद्रबाहु आचार्य भये।"२२
२१. The Indian Antiquary, vol. XXI , p.69. २२. Ibid., p. 68.
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