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________________ अ०१२ / प्र०४ कसायपाहुड / ७८३ या उसके चूर्णिसूत्रों को श्वेताम्बर-परम्परा का सिद्ध करने का अनुचित प्रयास करना शोभास्पद प्रतीत नहीं होता। अपनी प्रस्तावना के इसी प्रकरण में उक्त प्रस्तावना-लेखक ने अपनी साम्प्रदायिक मान्यता के आग्रहवश दिगम्बरपरम्परा को एक मत बतलाकर उसकी उत्पत्ति "दिगम्बर मतोत्पत्तिनो काल वीर संवत् ६०० पछी छे।" इन शब्दों द्वारा वीर सं० ६०० के बाद बतलाई है। सो इसे पढ़कर ऐसा लगता है कि उक्त प्रस्तावना-लेखक को प्रकृत विषय के इतिहास का सम्यक् अनुसन्धान करने की अपेक्षा बाह्याभ्यन्तर निर्ग्रन्थस्वरूप, प्राचीन श्रमण परम्परा, उसके प्राचीन साहित्य और इतिहास का श्वेताम्बरीकरण करने की अधिक चिन्ता दिखलाई देती है। अन्यथा वे दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्परा में कौन अर्वाचीन है और कौन प्राचीन है, इसका उल्लेख किये बिना उक्त साहित्यविषयक अन्य प्रमाणों के आधार से मात्र गुणधर और यतिवृषभ इन दोनों आचार्यों और उनकी रचनाओं के काल का ऊहापोह करते हुए अपना फलितार्थ प्रस्तुत करते। यहाँ यह कहा जा सकता है कि प्रकृत में पहले हमने (उक्त प्रस्तावना-लेखक ने) उक्त दोनों आचार्यों को प्राचीन (वीर नि० सं० ४६७ लगभग का) सिद्ध किया है और उसके बाद दिगम्बरमत की उत्पत्ति को वीर नि० ६०० वर्ष के बाद की बतलाकर उन्हें श्वेताम्बर सिद्ध किया है। पर विचारकर देखा जाय तो किसी भी वस्तु को इस पद्धति से अपने सम्प्रदाय की सिद्ध करने का यह उचित मार्ग नहीं, क्योंकि जैसा कि हम पूर्व में बतला आये हैं, ऐसे अन्य अनेक प्रमाण हैं, जिनसे उक्त दोनों आचार्य तथा उनकी रचनाएँ काल की अपेक्षा प्राचीन होने पर भी, न तो वे आचार्य श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं और न उनकी रचनाएँ ही श्वेताम्बर सिद्ध होती हैं। अतः कषायप्राभृत मूल तथा चूर्णि के रचनाकाल को आधार मानकर इस प्रकरण में इनको श्वेताम्बर आचार्यों की कृति सिद्ध करने का जो प्रयत्न किया गया है, वह किस प्रकार तर्क और प्रमाण हीन है, इसका सांगोपांग विचार किया। आगे खवगसेढि की प्रस्तावना में 'कषायप्राभृत चूर्णिनी रचनाना काल अंगे वर्तमान सम्पादकोनी मान्यता' आदि कतिपय शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तावना-लेखक ने जो विचार व्यक्त किये हैं, उनकी विस्तृत मीमांसा की तत्काल आवश्यकता न होने से विधिरूप से उनमें से कुछ मुद्दों पर संक्षेप में प्रकाश डाल देना आवश्यक प्रतीत होता है। १. त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अंत में ये दो गाथाएँ पाई जाती हैं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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