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________________ ७८२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१२ / प्र०४ जिस विषय का आनुपूर्वी से किसी प्रकार का आधार उपलब्ध नहीं हुआ, उसकी वे अनुश्रुति के अनुसार ही व्याख्या करते हैं। टीका में वे प्रामाणिकता को बराबर बनाये रखते हैं। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जिस उपदेश को उन्होंने आर्यमंक्षु का बतलाया है, वह भी साधार ही बतलाया है और जिसे उन्होंने नागहस्ति का बतलाया है वह भी साधार ही बतलाया है। अतः इससे सिद्ध है कि दिगम्बरपरम्परा में इन दोनों आचार्यों के उपदेशों की आनुपूर्वी पठन-पाठन तथा टीका-टिप्पणी आदि रूप से यथावत् कायम रही। किन्तु श्वेताम्बरपरम्परा में ऐसा कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता। उस परम्परा में जितना भी कार्मिक-साहित्य उपलब्ध है, उसमें कहीं भी अन्य गर्ग प्रभृति आचार्यों के मत-मतान्तरों की तरह इन आचार्यों का नामोल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। उक्त प्रस्तावना-लेखक को चाहिए कि वे इस विषय में एक नन्दीसूत्र-पट्टावली को निर्णायक न मानें। किन्तु अपने कार्मिक-साहित्य पर भी दृष्टिपात करें। यदि वे तुलनात्मक दृष्टि से दोनों परम्पराओं के कार्मिक साहित्य पर सम्यक् रूप से दृष्टिपात करेंगे, तो उन्हें न केवल वास्तविकता का पता लग जायगा, किन्तु वे नन्दिसूत्र की पट्टावली में आर्यमंक्षु और नागहस्ति का उल्लेख होने मात्र से उसके आधार पर कषायप्राभृत और उसके चूर्णिसूत्रों को श्वेताम्बरमत का होने का आग्रह करना भी छोड़ देंगे। (उस परम्परा में एतद्विषयक अन्य उल्लेख नन्दीसूत्र-पट्टावली का अनुसरण करते हैं, अतः उन पर विचार नहीं किया)। इस प्रकार इतने विवेचन से यह सिद्ध हो जाने पर कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि दिगम्बर आचार्यों की अमर कृतियाँ हैं, चूर्णिसूत्रों के रचनाकाल का कोई विशेष मूल्य नहीं रह जाता। फिर भी इस विषय को जयधवला (क.पा.) प्रथम भाग में कालगणना के प्रसंग से अत्यन्त स्पष्टरूप में स्वीकार कर लिया गया है कि वर्तमान त्रिलोक-प्रज्ञप्ति को आचार्य यतिवृषभ की कृति स्वीकार करने पर चूर्णिसूत्रों की रचना की यह कालगणना की जा रही है। प्रस्तावना (पृ.४३) के शब्द हैं ___ "हमने कुछ पूर्व जो यतिवृषभ का समय बतलाया है, वह त्रिलोकप्रज्ञप्ति और चूर्णिसूत्रों के रचयिता यतिवृषभ को एक मानकर उनकी त्रिलोकप्रज्ञप्ति के आधार पर लिखा है।" अब यदि वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्ति संग्रहग्रन्थ होने से या अन्य किसी कारण से उन्हीं आचार्य यतिवृषभ की कृति सिद्ध नहीं होती है, जिनकी रचना कषायप्राभृत के चूर्णिसूत्र हैं, तो इसमें दिगम्बरपरम्परा को या जयधवला के प्रस्तावना-लेखकों को कोई आपत्ति भी नहीं दिखलाई देती। यह एक स्वतन्त्र ऊहापोह का विषय है और इस विषय पर स्वतन्त्ररूप से ऊहापोह होना चाहिए। किन्तु इस आधार पर कषायप्राभृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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