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७८४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० १२ / प्र० ४
पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणवसहं । दट्ठूण परिसवसहं जदिवसहं धम्मसुत्तपाढए वसहं ॥ ९/७६ ॥
चुण्णिस्सरूवत्थकरणसरूवपमाण होइ किं जं तं । तिलोयपण्णत्तणामाए ॥ ९७७ ।
अट्ठसहस्पाणं
इनमें से प्रथम गाथा जयधवला - सम्यक्त्व - अधिकार के मंगलाचरण के रूप में पाई जाती है। उसका पाठ इस प्रकार है
पणमह जिणवरवसहं गणहरवसहं तहेव गुणहरवसहं । दुसहपरीसहविसहं जवसहं
धम्मसुत्तपाढरवसहं ॥
इसका अर्थ हे कि जिनवरवृषभ, गणधरवृषभ, गुणधरवृषभ तथा दुःसह परीषहों को जीतनेवाले और धर्मसूत्र के पाठकों में श्रेष्ठ यतिवृषभ को तुम सब प्रणाम करो ।
(क.पा./ भाग १२ / पृ. १९३) ।
त्रिलोकप्रज्ञप्ति के अन्त में आई हुई इस गाथा का पाठभेद के होते हुए भी लगभग यही अर्थ है। पाठभेद लिपिकारों के प्रमाद से हुआ जान पड़ता है।
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अब विचार यह करना है कि यह गाथा त्रिलोकप्रज्ञप्ति से उठाकर जयधवला में निक्षिप्त की गई है या जयधवला से उठाकर त्रिलोकप्रज्ञप्ति में निक्षिप्त की गई है। सम्यक्त्व - अधिकार के प्रारम्भ में आई हुई उक्त मंगल गाथा के बाद वहाँ एक दूसरी गाथा भी पाई जाती है, जिस पर दृष्टिपात करने से तो ऐसा प्रतीत होता है कि उक्त मंगलगाथा जयधवला के सम्यक्त्व अधिकार की ही होनी चाहिए, क्योंकि इस गाथा के पूर्वार्ध द्वारा उक्त गाथा के मंगलार्थ का समर्थन कर उत्तरार्ध द्वारा विषय का निर्देश किया गया है। वह गाथा इस प्रकार है
इय पणमिय जिणणाहे गणणाहे तह ये चेव मुणिणाहे । सम्मत्त सुद्धिहे वोच्छं सम्मत्तमहियारं ॥ २॥
( क. पा. / भाग १२ / पृ.१९३) ।
वैसे वर्तमान में त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ जिस रूप में पाया जाता है, वह संग्रहग्रन्थ न होकर एककर्तृक होगा, यह मानना बुद्धिग्राह्य नहीं प्रतीत होता और इसीलिए जयधवला की प्रस्तावना (पृ.६१, टिप्पणी) में यह स्पष्ट स्वीकार कर लिया गया है कि " वर्तमान में त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ जिस रूप में पाया जाता है, उसी रूप में आचार्य यतिवृषभ ने उसकी रचना की थी, इस बात में हमें सन्देह है । "
फिर भी जयधवला सम्यक्त्व - अधिकार की उक्त मंगलगाथा का 'चुण्णिस्सरूव' इत्यादि गाथा के साथ त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थ के अन्त में पाया जाना इस तथ्य को अवश्य
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