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अ०१२/प्र०४
कसायपाहुड / ७७९ ___ एक बात और है, वह यह कि नन्दिसूत्र की पट्टावली विश्वसनीय भी नहीं मानी जा सकती, क्योंकि उसमें जिस रूप में आर्यमंक्षु और नागहस्ति का उल्लेख पाया जाता है, उसके अनुसार वे दोनों एककालीन नहीं सिद्ध होते। श्री मुनि जिनविजय जी का तो यहाँ तक कहना है कि यह पट्टावली अधूरी है, क्योंकि इस पट्टावली में आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती के मध्य केवल आर्यनन्दिल को स्वीकार किया गया है, किन्तु आर्य मंक्षु और आर्यनन्दिल के मध्य पट्टधर चार आचार्य और हो गये हैं, जिनका उल्लेख इस पट्टावली में छूटा हुआ है। (वी.नि.स.और जैन का.ग. / पृ.१२४)।
दूसरे, नन्दीसूत्र की पट्टावली में अलग से ऐसा कोई उल्लेख भी दृष्टिगोचर नहीं होता, जिससे आर्यमंक्षु को स्वतन्त्ररूप से कर्मशास्त्र का ज्ञाता स्वीकार किया जाय। उसमें आर्य नागहस्ति को अवश्य ही कर्मप्रकृति में प्रधान स्वीकार किया गया है। इससे इस बात का सहज ही पता लगता है कि जिसने नन्दीसूत्र की पट्टावली का संकलन किया है, उसे इस बात का पता नहीं था कि गुणधर आचार्य द्वारा रची गई गाथाएँ साक्षात् या आचार्यपरम्परा से आर्यमंक्षु को प्राप्त हुई थीं, जब कि दिगम्बरपरम्परा में यह प्रसिद्धि आनुपूर्वी से चली आ रही है। यही बात आर्य नागहस्ति के विषय में भी समझनी चाहिए, क्योंकि उस (नन्दीसूत्र-पट्टावली) में आर्य नागहस्ती को कर्मप्रकृति में प्रधान स्वीकार करके भी, इन्हें न तो कषायप्राभृत का ज्ञाता स्वीकार किया गया है और न ही उन्हें गुणधर आचार्य द्वारा रची गई गाथाएँ आचार्य-परम्परा से या साक्षात् प्राप्त हुईं, यह भी स्वीकार किया गया है। यह एक ऐसा तर्क है, जो प्रत्येक विचारक को यह मानने के लिये बाध्य करता है कि कषायप्राभृत श्वेताम्बरआचार्यों की कृति न होकर दिगम्बर-आचार्यों की ही रचना है।
तीसरे दिगम्बर-परम्परा में कषायप्राभृत और चूर्णि का जो प्रारम्भकाल से पठनपाठन होता आ रहा है, इससे भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। इन्द्रनन्दी ने अपने द्वारा रचित श्रुतावतार में आचार्य यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों के अतिरिक्त दूसरी ऐसी कई पद्धति-पंजिकाओं का उल्लेख किया है, जो कषायप्राभृत पर रची गई थीं (क.पा./ भाग १/प्रस्तावना/ पृ.९ तथा १४ से)। स्वयं वीरसेन ने अपनी जयधवला टीका मे ऐसी कई उच्चारणाओं, स्वालिखित उच्चारणा और वप्पदेवलिखित उच्चारणा का उल्लेख किया है, जो जयधवला टीका के पूर्व रची गई थीं। बहुत संभव है कि इनमें इन्द्रनन्दी द्वारा उल्लिखित पद्धति-पंजिकाएँ भी सम्मिलित हों। (जयधवला/क.पा. / भा.१/ प्रस्ता./ पृ.९ से १४)।
उक्त तथ्यों के सिवाय प्रकृत में यह भी उल्लेखनीय है कि आचार्य यतिवृषभ ने अपने चूर्णिसूत्रों में प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान इन दो प्रकार के उपदेशों का उल्लेख
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