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७७८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१२ / प्र०४
आगे खवगसेढि की प्रस्तावना में कषायप्राभृत मूल तथा चूर्णिनी रचनानो काल उपशीर्षक के अन्तर्गत प्रस्तावनालेखक ने जो विचार व्यक्त किये हैं, वे क्यों ठीक नहीं हैं, इसकी यहाँ मीमांसा की जाती है
१. जिस प्रकार जयधवला के प्रारम्भ में दिगम्बर-परम्परा के मान्य आचार्य वीरसेन ने तथा श्रुतावतार में इन्द्रनन्दि ने कषायप्राभृत के कर्तारूप में आचार्य गुणधर का और चूर्णिसूत्रों के कर्तारूप में आचार्य यतिवृषभ का स्मरण किया है, इस प्रकार श्वेताम्बर-परम्परा में किसी भी पट्टावली या कार्मिक या इतर साहित्य में इन आचार्यों का किसी भी रूप में नामोल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। अतः इस विषय में उक्त प्रस्तावनालेखक का यह लिखना युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता कि "पट्टावली में पाटपरम्परा में आनेवाले प्रधानपुरुषों के नामों का उल्लेख होता है" आदि। क्योंकि पट्टावली में पाटपरम्परा के प्रधान पुरुषों के रूप में यदि उनका नाम नहीं भी आया था, तो भी यदि वे श्वेताम्बरपरम्परा के आचार्य होते, तो अवश्य ही किसी न किसी रूप में, कहीं न कहीं, उनके नामों का उल्लेख अवश्य ही पाया जाता। श्वेताम्बरपरम्परा में इनके नामों का उल्लेख न पाया जाना ही यह सिद्ध करता है कि इन्हें श्वेताम्बरपरम्परा के आचार्य मानना युक्तियुक्त नहीं है।
२. एक बात यह भी कही गई है कि जयधवला में एक स्थल पर गुणधर का वाचकरूप से उल्लेख दृष्टिगोचर होता है, इसलिए वे वाचकवंश के सिद्ध होने से श्वेताम्बर-परम्परा के आचार्य होने चाहिये, सो इसका समाधान यह है कि यह कोई ऐसा तर्क नहीं है कि जिससे उन्हें श्वेताम्बरपरम्परा का स्वीकार करना आवश्यक समझा जाय। वाचक शब्द का अर्थ वाचना देनेवाला होता है, जो श्वेताम्बरमत की उत्पत्ति के पहले से ही श्रमणपरम्परा में प्राचीनकाल से रूढ़ चला आ रहा है। अतः जयधवला में गुणधर को यदि वाचक कहा भी गया है, तो इससे भी उन्हें श्वेताम्बरपरम्परा का आचार्य मानना युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता।
३. यह ठीक है कि श्वेताम्बरपरम्परा में नन्दिसूत्र की पट्टावली में तथा अन्यत्र आर्यमंक्षु और नागहस्ति का नामोल्लेख पाया जाता है और जयधवला के प्रथम मंगलाचरण में चूर्णिसूत्रों के कर्ता आचार्य यतिवृषभ को आर्यमंक्षु का शिष्य और नागहस्ति का अन्तेवासी कहा गया है, परन्तु मात्र यह कारण भी आचार्य यतिवृषभ को श्वेताम्बरपरम्परा का मानने के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार श्वेताम्बर-परम्परा उक्त दोनों आचार्यों को अपनी परम्परा का स्वीकार करती है, उसी प्रकार दिगम्बर-परम्परा ने भी उन्हें अपनी परम्परा का स्वीकार किया है, जैसा कि जयधवला आदि के उक्त उल्लेखों से ज्ञात होता है।
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