________________
७८० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० १२ / प्र० ४
पद - पद पर किया है तथा इन दोनों प्रकार के उपदेशों में से किसका उपदेश प्रवाह्यमान है और किसका उपदेश अप्रवाह्यमान है, इस विषय का स्पष्ट निर्देश स्वयं जयधवलाकार ने अपनी टीका में किया है (देखो, प्रस्तुत भाग १२ / पृ. १८, २३-६६, ७१, ११६ और १४५) । सो इससे भी इस बात का पता लगता है कि कर्मविषयक किस विषय में इन दोनों (आर्यमंक्षु और नागहस्ति) का क्या अभिप्राय था और उनमें से कौन उपदेश प्रवाह्यमान अर्थात् आचार्यपरम्परा से आया हुआ था और कौन उपदेश अप्रवाह्यमान अर्थात् आचार्यपरम्परा से प्राप्त नहीं था, इसकी पूरी जानकारी जयधवला - टीकाकार को निःसंशयरूप से थी ।
यहाँ यह प्रश्न होता है कि कषायप्राभृत और उसके चूर्णिसूत्रों के रचनाकाल में तथा जयधवला टीक के रचनाकाल में शताब्दियों का अन्तर रहते हुए भी जयधवला के टीकाकार ने उक्त जानकारी कहाँ से प्राप्त की होगी ? समाधान यह है कि यह तो जयधवला टीका के अवलोकन से ही ज्ञात होता है कि उसकी रचना केवल कषायप्राभृत और उसके चूर्णिसूत्रों के आधार पर ही न होकर उसकी रचना के समय इन दोनों रचनाओं से सम्बन्ध रखनेवाला बहुत-सा उच्चारणा वृत्ति आदि रूप साहित्य जयधवलाकर के सामने रहा है। और इससे सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि उच्चारणा वृत्ति आदि नाम से अभिहित किये गये उक्त साहित्य से वे इस बात का निर्णय करते होंगे कि इनमें से कौन उपदेश अप्रवाह्यमान होकर आर्यमं द्वारा प्रतिपादित है, कौन उपदेश प्रवाह्यमान होकर आर्य नागहस्ति या दोनों द्वारा प्रतिपादित है और कौन उपदेश ऐसा है जिसके विषय में उक्त प्रकार से निर्णय करना सम्भव न होने से केवल चूर्णिसूत्रों के आधार से प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान रूप से उनका उल्लेख किया गया है । प्रस्तुत ( १२ वें) भाग में पद-पद पर इस विषय के ऐसे अनेक उल्लेख आये हैं, जिनसे प्रत्येक पाठक को उक्त कथन की पूरी जानकारी मिल जाती है। यथा
१. आर्यमंक्षु का उपदेश अप्रवाह्यमान है और नागहस्ति का उपदेश प्रवाह्यमान है । यथा
44
' अथवा अज्जमंखुभयवंताणमुवएसो एत्थापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जतओ त्ति घेत्तव्वो ।" (पृ. ७२)
यहाँ उपयोग अर्थाधिकार की ४थी गाथा के व्याख्यान का प्रसंग है । उसमें कषाय और अनुभाग की चर्चा के प्रसंग से आचार्य यतिवृषभ ने उक्त दोनों आचार्यों के दो उपेदशों का उल्लेख किया है। उनमें से कषाय और अनुभाग एक हैं यह बतलानेवाले भगवान् आर्यमंक्षु के उपदेश को जयधवला के टीकाकार ने अप्रवाह्यमान कहा है और
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org