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________________ अ० १२ / प्र० ४ कसायपाहुड / ७७५ हैं कि श्रुतकेवली भद्रबाहु के काल में ही वस्त्र - पात्रधारी श्वेताम्बरमत की स्थापना की नींव पड़ गई थी। यह इसी से स्पष्ट है कि श्वेताम्बर - परम्परा जिनलिंगधारी भद्रबाहु को श्रुतकेवली स्वीकार करके भी उनके प्रति अनास्था दिखलाती है और उन्हें गौण कर अपनी परम्परा को स्थूलभद्र आदि से स्वीकार करती है । २ प्रस्तावना-लेखक ने 'श्वेताम्बराचार्यांना ग्रन्थोंमां कपायप्राभृतना आधार साक्षी तथा अतिदेशो' इस दूसरे उपशीर्षक के अन्तर्गत श्वेताम्बर- कार्मिक - साहित्य में जहाँजहाँ कषायप्राभृत के उल्लेखपूर्वक कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि को विषय की पुष्टि के रूप से निर्दिष्ट किया गया है या विषय के स्पष्टीकरण के लिए उनको साधार उपस्थित किया गया है, उनका संकलन किया है। १. उनमें से प्रथम उल्लेख पंचसंग्रह ( श्वे. ) का है। इसकी दूसरी गाथा में शतक आदि पाँच ग्रन्थों को संक्षिप्त कर इस पंचसंग्रह ग्रन्थ की रचना की गई है, अथवा पाँच द्वारों के आश्रय से इस पंचसंग्रह ग्रन्थ की रचना की गई है, यह बतलाया गया है। किन्तु स्वयं चन्द्रर्षि महत्तर उक्त ग्रन्थ की तीसरी गाथा में वे पाँच द्वार कौन से हैं, इनका जिस प्रकार नामोल्लेख कर दिया है, उस प्रकार गाथारूप या वृत्तिरूप अपनी किसी भी रचना में एक शतक ग्रन्थ के नामोल्लेख को छोड़कर अन्य जिन चार ग्रंथों के आधार से इस पंचसंग्रह ग्रंथ की रचना की गई है, उनका नामोल्लेख नहीं किया है । अत एव एक शतक के सिवाय अन्य जिन चार ग्रन्थों का अपने पंचसंग्रह ग्रंथ में उन्होंने संक्षेपीकरण किया है, वे चार ग्रंथ कौन से हैं, इसका तो उनकी उक्त दोनों रचनाओं से पता चलता नहीं। हाँ उक्त ग्रंथ की 'नमिऊण जिणं वीरं' इस मंगल गाथा की टीका में मलयगिरि ने अवश्य ही उन पाँच ग्रंथों का नामोल्लेख किया है। स्वयं चन्द्रर्षि महत्तर अपनी रचना में पाँच द्वारों का नामोल्लेख तो करते हैं, परन्तु उन ग्रंथों का नामोल्लेख नहीं करते, इसमें क्या रहस्य है, यह अवश्य ही विचारणीय है। बहुत सम्भव तो यही दिखलाई देता है कि श्वेताम्बरपरम्परा में क्षपणा आदि विधि का आनुपूर्वी से सविस्तर कथन उपलब्ध न होने के कारण उन्होंने कषायप्राभृत (कषायप्राभृत में उसकी चूर्णि भी परिगणित है) का सहारा तो अवश्य लिया होगा, परन्तु यतः कषायप्राभृत श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रंथ नहीं है, अतः पञ्चसंग्रह में किन पाँच ग्रंथों का संग्रह है, इसका पूरा स्पष्टीकरण करना उन्होंने उचित नहीं समझा होगा । २. दूसरा उल्लेख शतकचूर्णि के टिप्पण का है । यह टिप्पण अभी तक मुद्रित नहीं हुए हैं। प्रस्तावना - लेखक ने अवश्य ही यह संकेत किया है कि उक्त टिप्पण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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