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७७४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ० १२ / प्र० ४
किया गया है। इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि कषायप्राभृत- चूर्णिकार ने द्रव्यार्थिकनयरूप से ऋजुसूत्रनय को नहीं स्वीकार किया है, क्योंकि सादृश्य - सामान्य की विवक्षा में ही किसी अन्य वस्तु में अन्य वस्तु की स्थापना की जा सकती है और सादृश्यसामान्य द्रव्यार्थिकनय का विषय है, जिसे पर्यायार्थिकनय का भेद ऋजुसूत्रनय नहीं स्वीकार करता। अतः यह स्पष्ट है कि कषायप्राभृत- चूर्णिकार ने ऋजुसूत्रनय को पर्यायार्थिकनयरूप से ही स्वीकार किया है, द्रव्यार्थिकनयरूप से नहीं। फिर नहीं मालूम उक्त प्रस्तावना में किस आधार से यह विधान करने का साहस किया है कि "कषायप्राभृतचूर्णिकार ऋजुसूत्रनय को द्रव्यार्थिकनय में समावेश करने के लिए श्वेताम्बर आचार्यों की परम्परा का अनुसरण करते हैं ?"
शायद उन्होंने अर्थनय को द्रव्यार्थिकनय समझकर यह विधान किया है। किन्तु यदि यही बात है तो हमें लिखना पड़ता है कि या तो यह उनकी नयविषयक अनभिज्ञता का परिणाम है या फिर इसे सम्प्रदायका व्यामोह कहना होगा। कारण कि जब कि आगम में द्रव्यार्थिकनय के नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीनों भेद अर्थनयस्वरूप ही स्वीकार किये गये हैं और पर्यायार्थिकनय के दो भेद करके उनमें से ऋजुसूत्रनय को अर्थनयस्वरूप स्वीकार किया गया है, ऐसी अवस्था में बिना आधार के उसे द्रव्यार्थिकनय स्वरूप बतलाना और अपने इस अभिप्राय से कषायप्राभृतचूर्णिकार को जोड़ना इसे सम्प्रदायका व्यामोह नहीं कहा जायगा तो और क्या कहा जायगा ?
यों तो सातों ही नयों का विषय अर्थ- वस्तु है। फिर भी उनमें से नैगमादि तीन नय पर्याय को गौण कर सामान्य की मुख्यता से वस्तु का बोध कराते हैं, इसलिए वे द्रव्यार्थिकरूप से अर्थनय कहे गये हैं । ऋजुसूत्रनय सामान्य को गौणकर वर्तमान पर्याय की मुख्यता से वस्तु का बोध कराता है, इसलिए वह पर्यायार्थिकरूप से अर्थनय कहा गया है। और शब्दादि तीन नय यद्यपि सामान्य को गौणकर वर्तमान पर्याय की मुख्यता से ही वस्तु का बोध कराते हैं, फिर भी ऋजुसूत्र से इन शब्दादि तीन नयों में इतना अन्तर है कि ऋजुसूत्रनय अर्थप्रधाननय है और शब्दादि तीन नय शब्दप्रधान नय हैं। इसलिए नैगमादि सातों नय अर्थनय और शब्दनय, इन दो भेदों में विभक्त होकर अर्थनय के चार और शब्दनय के तीन भेद हो जाते हैं । यहाँ अर्थनय के चार भेदों में ऋजुसूत्रनय सम्मिलित है, मात्र इसीलिए वह द्रव्यार्थिकनय नहीं हो जायगा । रहेगा वह पर्यायार्थिक ही । षट्खण्डागम और कषायप्राभृतचूर्णिसूत्र प्रभृति जितना भी दिगम्बर आचार्यों द्वारा लिखा गया साहित्य है, वह सब एक स्वर से एकमात्र इसी अभिप्राय की पुष्टि करता है। मालूम पड़ता है कि उक्त प्रस्तावना लेखक ने दिगम्बरसाहित्य का और स्वयं कषायप्राभृतचूर्णिसूत्र का सम्यक् प्रकार से परिशीलन किये बिना ही यह अनर्गल विधान किया है। यहाँ प्रसंग से हम यह सूचित कर देना चाहते
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