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अ० १२ / प्र० ४
कसायपाहुड / ७७३
नय हैं और ऋजुसूत्र आदि चार पर्यायार्थिक नय हैं। इस विषय में दिगम्बरपरम्परा में कहीं किसी प्रकार मतभेद दिखलाई नहीं देता । कषायप्राभृतचूर्णिकार भी अपने चूर्णिसूत्रों में सर्वत्र ऋजुसूत्रनय का पर्यायार्थिकनय में ही समावेश करते हैं। फिर भी उक्त (श्वे०) मुनि जी ने अपनी प्रस्तावना में यह उल्लेख किस आधार से किया है कि 'कषायप्राभृतचूर्णिकार ऋजुसूत्रनय को द्रव्यार्थिकनय स्वीकार करते हैं', यह समझ से बाहर है। उक्त कथन की पुष्टि करनेवाला उनका वह वचन इस प्रकार है- "अहीं कषायप्राभृत- चूर्णिकार ऋजुसूत्रनयनो द्रव्यार्थिकनयमां समावेश करवा द्वारा श्वेताम्बराचार्योनी सैद्धान्तिक परम्पराने अनुसरे छे कारणके श्वेताम्बरों में सैद्धान्तिक परम्परा ऋजुसूत्रनयनो द्रव्यार्थिकनयमां समावेश करे छे।"
कषायप्राभृत चूर्णिसूत्रों में ऐसे चार स्थल हैं, जहाँ निक्षेपों में नययोजना की गई. है। प्रथम पेज निक्षेप के भेदों की नययोजना करनेवाला स्थल । यथा
२४. “णेगम-संगहववहारा सव्वे इच्छंति । " २५. "उजुसुदो ठवणवज्जे ।" २६. " सद्दणयस्स णामं भावो च ।" पृ. १७ । (देखें, क. पा. / भाग १ / पृ. २३५ - २४०)। दूसरा दोस पद का निक्षेप कर उन सब में नययोजना करनेवाला स्थल ।
यथा
३२. “ णेगम - संगह ववहारा सव्वे णिक्खेवे इच्छंति ।" ३३. “उजुसुदो वणवजे । " ३४. “सद्दणयस्स णामं भावो च ।" पृ. १७ । (देखें, क. पा. / भाग १ / पृ. २५२ - २५३ ) । तीसरा संकम पद का निक्षेप कर उन सब में नययोजना करनेवाला स्थल ।
यथा
७.
५. " णेगमो सव्वे संकमे इच्छइ ।" ६. " संग्रह - ववहारा कालसंकममवणेंति । ' "उजुसुदो एदं च ठवणं च अवणेइ । " ८. "सहस्स णामं भावो य ।" पृ.२५१ । (देखें, क.पा./ भाग ८ /पृ. ८-१० ) ।
चौथा ट्ठाण पदका निक्षेप कर उन सबमें नययोजना करनेवाला स्थल ।
यथा
१०. " गमो सव्वाणि द्वाणाणि इच्छइ ।" ११. "संगह - ववहारा पलिवीचिट्ठाणं उच्चट्ठाणं च अवर्णेति । " १२. "उजुसुदो एदाणि च ठवणं च अद्धट्ठाणं च अवणेइ । " १३. “सद्दणयो णामट्ठाणं संजमट्ठाणं खेत्तट्ठाणं भावट्ठाणं च इच्छदि।" पृ. ६०७६०८ (देखें, क.पा./ भाग १२ / पृ. १७५ - १७६)।
ये चार स्थल है, जिनमें कौन निक्षेप किस नय का विषय है, यह स्पष्ट किया गया है। स्थापनानिक्षेप ऋजुसूत्रनयका विषय नहीं है, इसे इन सब स्थलों में स्वीकार
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