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________________ ७७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २ अ०१२ / प्र०४ में बाँधे गये कर्मों के वर्तमान में क्षपक के विकल्प से स्वीकार करने में कोई प्रत्यवाय नहीं दिखाई देता। कारण कि संयमभाव का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण और जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण बतलाया है। यथा "संजमाणुवादेण संजद-सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धिसंजदसंजदा-संज-दाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि॥ १०८॥ जहणेण अंतोमुहत्तं ॥ १०९॥ उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टे देसूणं" ॥ ११०॥ (ष.खं./पु.७/पृ.२२१-२२२)। यहाँ जयधवलाटीकाकार ने उक्त सूत्र की व्याख्या करते हुए णिग्गंथ लिंगवदिरित्तसेसाणं२१ यह लिखकर 'सर्वलिंग' पद से निर्ग्रन्थलिंग के अतिरिक्त जो शेष सविकार सर्वलिंगों का ग्रहण किया है, वह उन्होंने क्षपकश्रेणि पर आरोहण करनेवाला जीव अन्यलिंगवाला न होकर वर्तमान में निर्ग्रन्थ ही होता है और इस अपेक्षा से उसके निर्ग्रन्थ अवस्था में बाँधे गये कर्म भजनीय न होकर नियम से पाये जाते हैं, यह दिखलाने के लिए ही किया है, क्योंकि जो जीव अन्तरंग में निर्ग्रन्थ होता है, वह बाह्य में नियम से निर्ग्रन्थ होता है। किन्तु इन दोनों के परस्पर अविनाभाव को न स्वीकार कर जो श्वेताम्बर-सम्प्रदायवाले इच्छानुसार वस्त्र-पात्रादि-सहित अन्य वेश में रहते हुए भी वर्तमान में क्षपकश्रेणि आदि पर आरोहण करना या रत्नत्रयस्वरूप मुनिलिंग की प्राप्ति मानते हैं, उनके उस मत का निषेध करने के लिए जयधवलाटीकाकार ने णिग्गंथलिंगवदिरित्तसेसाणं पद की योजना की है। विचार कर देखा जाय, तो उनके इस निर्देश में किसी भी प्रकार की साम्प्रदायिकता की गन्ध न होकर वस्तुस्वरूप का उद्घाटन मात्र है, क्योंकि भीतर से जीवन में निर्ग्रन्थ वही हो सकता है, जो वस्त्रपात्रादि का बुद्धिपूर्वक त्यागकर बाह्य में जिनमुद्रा को पहले ही धारण कर लेता है। कोई बुद्धिपूर्वक वस्त्र-पात्र आदि को स्वीकार करे, उन्हें रखे, उनकी सम्हाल भी करे, फिर भी स्वयं को वस्त्र-पात्र आदि सर्व परिग्रह का त्यागी बतलावे, इसे मात्र जीवन की विडम्बना करनेवाला ही कहना चाहिए। अतः वर्तमान में जिसने वस्त्र-पात्रादि सर्व परिग्रहका त्यागकर निर्ग्रन्थलिंग स्वीकार किया है. वही क्षपक हो सकता है और ऐसे क्षपक के निर्ग्रन्थलिंग ग्रहण करने के समय से लेकर बाँधे गये कर्म सत्ता में अवश्य पाये जाते हैं, यह दिखलाने के लिये ही श्री जयधवलाटीकाकार ने अपनी टीका में सर्वलिंग पद का अर्थ निर्ग्रन्थलिंग-व्यतिरिक्त अन्य सब लिंग किया है जो 'व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिः' इस नीतिवचन का अनुसरण करनेवाला होने से उपयुक्त ही है। दूसरा उल्लेख है-२४."णेगम-संगह-ववहारा सव्वे इच्छंति।" २५."उजुसुदो ट्ठवणवजे।" (क.प्रा.चूर्णि / पृ.१७)। [देखें, क.पा./ भाग १/पृ.२५२] । इसका व्याख्यान करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि नैगम, संग्रह और व्यवहार ये तीन द्रव्यार्थिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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