SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 825
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ० १२ / प्र० ४ कसायपाहुड / ७७१ उक्त प्रस्तावना-लेखक का कहना है कि " क्षपक चारित्रवेषमां होय, पण खरो अने न पण होय, चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य तापसादिना वेशमां रहेल जीव पण क्षपक थई शके छे, एटले प्रस्तुत सूत्र दिगम्बरमान्यता थी विरुद्ध छे ।" आदि । अब सवाल यह है कि उक्त प्रस्तावना - लेखक ने उक्त सूत्र पर से यह निष्कर्ष कैसे फलित कर लिया कि 'क्षपक चारित्रवेषमां होय पण खरो अने न पण होय, चारित्रना वेष वगर अर्थात् अन्य तापसादिना वेशमां रहेल जीव पण क्षपक थई शके छे ।' कारण कि वर्तमान में जो क्षपक है, उसके अतीत काल में कर्मबन्ध के समय कौन-सा लिंग था, उस लिंग में बाँधा गया कर्म क्षपक के वर्तमान में सत्ता में नियम से होता है या विकल्प से होता है? इसी अन्तर्गत शंका को ध्यान में रखकर यह समाधान किया गया है कि 'विकल्प से होता है।' इस पर से यह कहाँ फलित होता है कि वर्तमान में वह क्षपक किसी भी वेश में हो सकता है? मालूम पड़ता है कि अपने सम्प्रदाय के व्यामोह और अपने कल्पित वेश, के कारण ही उन्होंने उक्त सूत्र पर से ऐसा गलत अभिप्राय फलित करने की चेष्टा की है। थोड़ी देर के लिये उक्त (श्वेताम्बर) मुनि जी ने जो अभिप्राय फलित किया है, यदि उसी को विचार के लिए ठीक मान लिया जाता है, तो जिस गति आदि में पूर्व में जिन भावों के द्वारा बाँधे गये कर्म वर्तमान में क्षपक के विकल्प से बतलाये हैं, वे भाव भी वर्तमान में क्षपक के विकल्प से मानने पड़ेंगे। उदाहरणार्थ, पहले सम्यग्मिथ्यात्व में बाँधे गये कर्म वर्तमान में जिस क्षपक के विकल्प से बतलाये हैं, तो क्या उस क्षपक के वर्तमान में विकल्प से सम्यग्मिथ्यात्व भी मानना पड़ेगा। यदि कहो कि नहीं, तो सम्यग्मिथ्यात्व में बँधे हुये, जो कर्म सत्तारूप से वर्तमान में क्षपक विकल्प से होते हुए भी अतीतकाल में उन कर्मों के बन्ध के समय सम्यग्मिथ्यात्व भाव था, इतना ही आशय जैसे सम्यग्मिथ्यात्व - भावके विषय में लिया जाता है, उसी प्रकार सर्वलिंगों के विषय में भी यही आशय यहाँ लेना चाहिए । हम यह स्वीकार करते हैं कि जैसे अतीत काल में अन्य लिंगों में बाँधे गये कर्म वर्तमान में क्षपक के विकल्प से बन जाते हैं, वैसे ही अतीत काल में जिनलिंग अनुवाद – “निर्ग्रन्थलिंग के अतिरिक्त शेष सब लिंगों में रहनेवाले जीव के द्वारा पूर्व में बाँधे गये कर्मों की सत्ता इस क्षपक में भजनीय है ( विकल्प से होती है), यह उक्त कथन का तात्पर्य है । इसका क्या कारण है? कारण यह है कि तापस आदि वेशों का ग्रहण सब जीवों में संभव हो, ऐसा नियम नहीं है। इसलिए इन लिंगों में पूर्वबद्ध कर्मों की भजनीयता सिद्ध हो जाती है । " कसायपाहुड / भाग १५ / चारित्रमोहक्षपणानुयोगद्वार / अनुच्छेद ३८६ / पृ.१४१ ।” Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004043
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy