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७७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड २
अ०१२/प्र०४ आचार्यों द्वारा प्रतिपादित मत का ही अनुसरण करती हैं। फिर भी यहाँ विसंगति की सूचक उल्लेखनीय बात इतनी है कि श्वेताम्बर आचार्यों ने उक्त टीकाओं में व अन्यत्र मिथ्यात्व के तीन हिस्से मिथ्यात्वगुणस्थान के अन्तिम समय में स्वीकार करके भी उनमें मिथ्यात्व के द्रव्य का विभाग उसी समय न बतलाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रथम समय में स्वीकार किया है। यहाँ विसंगति यह है कि मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्तिम समय में तो तीन भाग होने की व्यवस्था स्वीकार की गई है और उन तीनों भागों में कर्मपुंज का बँटवारा प्रथमोपशम सम्यक्त्व के प्रथम समय से स्वीकार किया गया।
इस प्रकार इन दोनों परम्पराओं के प्रमाणों से स्पष्ट है कि कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि पर दिगम्बर आचार्यों ने टीका लिखी, केवल इसलिए हम उन्हें दिगम्बरआचार्यों की कृति नहीं कहते, किन्तु उनकी शब्दयोजना, रचनाशैली और विषयविवेचन दिगम्बरपरम्परा के अन्य कार्मिक साहित्य के अनुरूप है, श्वेताम्बरपरम्परा के कार्मिक साहित्य के अनुरूप नहीं, इसलिए उन्हें हम दिगम्बर-आचार्यों की अमर कृति स्वीकार करते हैं। ___अब आगे जिन चार उपशीर्षकों के अन्तर्गत उन्होंने कषायप्राभृत और उसकी चूर्णि को श्वेताम्बर-आचार्यों की कृति सिद्ध करने का असफल प्रयत्न किया है, उन पर क्रम से विचार करते हैं
उन्होंने सर्वप्रथम "दिगम्बरपरम्पराने अमान्य तेवा कषायप्राभृतचूर्णि अन्तर्गत पदार्थों" इस उपशीर्षक के अन्तर्गत क० प्रा० चूर्णि के ऐसे दो उल्लेख उपस्थित किये हैं, जिन्हें वे स्वमति से दिगम्बरपरम्परा के विरुद्ध समझते हैं।
प्रथम उल्लेख है-"सव्वलिंगेसु भजाणि।"२१ इस सूत्र का अर्थ है कि अतीत में सर्वलिंगों में बँधा हुआ कर्म क्षपक के सत्ता में विकल्प से होता है। इस पर
२१. (१३९) लेस्सा साद असादे च अभज्जा कम्म-सिप्प-लिंगे च।
खेत्तम्हि च भज्जाणि दु समाविभागे अभज्जाणि॥ १९२ ॥ चूर्णिसूत्र-"सव्वलिंगेसु च भज्जाणि।" अनुवाद-"सब लिंगों में पूर्वबद्ध कर्म इस क्षपक के भजनीय हैं।" जयधवला-"णिग्गंथलिंगवदिरित्तसेसाणं सलिंगग्गहणेसु वट्टमाणेण पुव्वबद्धाणि कम्माणि एदस्स खवगस्स भयणिज्जाणि त्ति वुत्तं होइ। किं कारणं? तावसादि-वेसग्गहणाणं सव्वजीवेसु संभवणियमाणुवलंभादो। तदो सिद्धमेदेसि भयणिज्जतं।" अनुच्छेद ३८६ ।
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