________________
अ०१२ / प्र०४
कसायपाहुड / ७६९ और उसकी चूर्णि में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियों को छोड़कर मोहनीय की अन्य किसी प्रकृति की उद्वेलना-प्रकृतिरूप से परिगणना नहीं की गई
मतभेदसम्बन्धी दूसरा उदाहरण मिथ्यात्व के तीन भाग कौन जीव करता है, इससे सम्बन्ध रखता है। श्वेताम्बर-आचार्यों द्वारा लिखे गये कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह में यह स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि दर्शनमोह की उपशमना करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्तिम समय में मिथ्यात्वकर्म को तीन भागों में विभक्त करता है। पंचसंग्रह-उपशमना-प्रकरण में कहा भी है
उवरिमठिइअणुभागं तं च तिहा कुणइ चरिममिच्छुदए।
देसघाईणं सम्मं यरेणं मिच्छमीसाइं॥ २३॥ कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णि में लिखा है
तं कालं बीयठिई तिहाणुभागेण देसघाइ त्थ।
सम्मत्तं सम्मिस्सं मिच्छत्तं सव्वघाईओ॥ १९॥ चूर्णि-"चरिमसमयमिच्छद्दिट्ठिसे काले उवसम्मदिट्ठी होहि त्ति ताहे बितीयद्वितीते तिहा अणुभागं करेति।" ___अब इन दोनों के प्रकाश में कषायप्राभृतचूर्णि पर दृष्टिपात कीजिए। इसमें प्रथम समयवर्ती प्रथमोपशम सम्यग्दृष्टि जीव को मिथ्यात्व को तीन भागों में विभाजित करनेवाला कहा गया है। यथा
"१०२. चरिमसमयमिच्छाइट्टी से काले उवसंतदंसणमोहणीओ। १०३.ताधे चेव तिण्णि कम्मंसा उप्पादिदा। १०४.पढमसमयउवसंतदंसणमोहणीओ मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्ते बहुगं पदेसग्गं देदि।" (कसायपाहुडसुत्त / पृ.६२८)।
यहाँ कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णि के विषय में संकेत कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि गाथा में जो तं कालं बीयठिइं पाठ है, उसका चूर्णिकार ने जो अनुवाद किया है, वह मूलानुगामी नहीं है। मालूम पड़ता है चूर्णि का अनुकरणमात्र है। इतना अवश्य है कि कषायप्राभृतचूर्णि की वाक्यरचना पीछे के विषयविवेचन के अनुसन्धानपूर्वक की गई है और कर्मप्रकृतिचूर्णि की उक्त वाक्यरचना, इससे पूर्व की गाथा और उसकी चूर्णि के विषय विवेचन को ध्यान में रखकर की गई है। जहाँ तक कर्मप्रकृति की उक्त मूल गाथाओं पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि उन दोनों गाथाओं द्वारा दिगम्बर आचार्यों द्वारा प्रतिपादित मत का ही अनुसरण किया गया है, किन्तु उक्त चूर्णि और उसकी टीका मूल का अनुसरण न करती हुईं श्वेताम्बर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org